आपको सिर्फ प्रियंका चोपड़ा के लिये द स्काय इज़ पिंक देखनी चाहिये, सुकन्या वर्मा ने तारीफ़ में कहा।
सबसे मुश्किल काम है एक ऐसे खाली कमरे में दुबारा क़दम रखना, जहाँ कभी ज़िंदग़ी हुआ करती थी।
दर्द को अलग-अलग श्रेणियों में नहीं बाँटा जाना चाहिये, लेकिन अगर आप माता-पिता हों और किशोरावस्था में आपकी बेटी आपको छोड़ कर चली गयी हो, तो आपका दर्द शायद औरों से कहीं ज़्यादा होगा।
द स्काय इज़ पिंक ने इसी कठोर सत्य को पर्दे पर उतारा है, लेकिन इससे पीड़ित लोगों को दुःख की बेड़ियों में बांध कर नहीं रखा है।
बल्कि, मृत बच्ची का एक वॉइसओवर हमें उसकी पहले से तय मौत का शोक न मनाने और उसे दुनिया में लाने वाले दो लोगों और तूफ़ानों के बावजूद मज़बूत हुए उनके वैवाहिक संबंधों पर ध्यान देने के लिये कहता है।
कहानी का हल्कापन आपको राहत भी देता है और वहीं दूसरी ओर एक ख़त्म हुई ज़िंदग़ी से आयी उदासी को कहीं भी कम नहीं करता।
कहानी बहुत सारी मुस्कुराहटें, आँसू और एक महत्वपूर्ण संदेश लेकर आती है कि ग्लास आधा भरा हुआ है।
न सिर्फ डायरेक्टर शोनाली बोस को इस दर्द का एहसास है बल्कि साथ ही उनकी फिल्म हर सेकंड इस दर्द को झेलने वाले एक परिवार पर आधारित है।
प्रेरणात्मक भाषण देने वाली वक्ता और माय लिट्ल एपिफैनीज़ की लेखिका आयशा चौधरी सिर्फ 18 की उम्र में चल बसी।
ग़ौरतलब है कि वह इसके लिये तैयार थी।
अगर आपने उसे बोलते हुए सुना हो, तो आप महसूस करेंगे कि उसने इस बात से समझौता कर लिया था।
जन्म के समय से ही एक बेहद कम पायी जाने वाली बीमारी SCID (सीवियर कम्बाइन्ड इम्युनोडिफ़िशियंसी) से पीड़ित इस लड़की की मौत डेमोकल्स की तलवार की तरह उसके सिर पर मंडराती रहती है।
एक समय में जब उसकी जान बचने की उम्मीद बेहद कम थी, तब माता-पिता की कोशिशों और परोपकारी लोगों के कारण उसकी ज़िंदग़ी के वर्ष बढ़ गये।
लेकिन, वह इलाज के साइड इफ़ेक्ट्स से नहीं बच पाई और उसे पल्मोनरी फाइब्रोसिस होने के बाद उसकी स्थिति और बिगड़ गयी, जिसका इलाज संभव नहीं था।
प्रेरणादायक बात यह है कि बोस ने आयशा को उसकी बीमारी से नहीं बल्कि उसके आभार से भरे स्वभाव से परिभाषित किया है, जो उसकी 'मूज़' मॉम अदिति (प्रियंका चोपड़ा जॉनस) और 'पांडा' डैड निरेन (फ़रहान अख़तर) के उसे बचा पाने के विश्वास का हर पल आनंद लेती है।
ये दोनों उसकी कहानी और द स्काय इज़ पिंक के हीरो हैं।
बीमारी भले ही चौधरी परिवार को अपनी चपेट में ले चुकी हो, लेकिन हर दिन उनका सूरज अपनी चमक ज़रूर बिखेरता है।
बोस और निलेश मनियार द्वारा लिखी हुई इस कहानी के बिखरे हुए समय-काल में आयशा (ज़ायरा वसीम) अपने माता-पिता की सेक्स लाइफ़ पर ताने मारती है, जो उसके संदेह के बावजूद काफ़ी सजीव लगती है। हालांकि निश्चित रूप से कोई भी किरदार बेफिक्र तो नहीं है।
अपनी बच्ची के लिये सबसे अच्छे इलाज की तलाश में चांदनी चौक की भीड़-भाड़ से लेकर लंदन की घुटन भरी गलियों तक का अदिति और निरेन का सफ़र, विदेश में एक बीमार बच्चे के पालन-पोषण में आने वाली परेशानियाँ, शादी के बाद पति-पत्नी और माँ-बेटी का एक-दूसरे से दूर रहना, दिल्ली के समृद्ध इलाकों में ख़ूबसूरत फार्महाउस ख़रीदने जितने पैसे जुटाने के लिये काम पर कड़ी मेहनत करना, इन सब के बीच द स्काय इज़ पिंक की तेज़ रफ़्तार कहानी हमारे सामने दौड़ती है।
अक्सर, आयशा के जानकारियों से भरे नैरेटर (कथावाचक) को सूझ-बूझ के साथ-साथ स्पष्ट बनने का दोहरा काम करना पड़ता है।
फ़्लैशबैक के भीतर दिखाये गये फ़्लैशबैक से हमें उसके माता-पिता के अंतर्जातीय विवाह, माँ के धर्म-परिवर्तन, बच्चा गिराने की इच्छाओं और शादी के पहले के मज़ेदार पलों की जानकारी मिलती है।
बैकग्राउंड स्कोर में सीटी और अकॉर्डियन का ख़ूबसूरत तालमेल, दिल से दिखाये गये प्यार के पल और हँसी-मज़ाक उनके प्यार के बीच उनकी कठिनाइयों का परिचय देते हैं।
लेकिन इस हल्के-फुल्के वर्णन की अपनी एक संरचना है।
ज़िंदग़ी कभी रुकती नहीं के कथन को मज़बूती देते हुए बोस ने अदिति-निरेन के हर छोटे-बड़े झगड़े से उनकी कमज़ोर पड़ती शादी की झलक दिखाई है, जिसमें झगड़े प्यार से ज़्यादा बड़े होते जाते हैं।
पैटर्निटी (पितृत्व) टेस्ट में हुई गड़बड़ के बाद सड़क पर हुई बहस हो या होटल के बाथरूम के भीतर हाथा-पाई हो या मेडिकल प्रक्रियाओं को लेकर एक-दूसरे से असहमति हो, आप दोनों के बीच के सजीव रिश्ते को देखते हैं, दो बनावटी किरदारों को नहीं।
दर्द की सबसे बड़ी काट है हँसी-मज़ाक।
एक बहुत ही ख़ूबसूरत सीन है -- जिसमें इस जोड़े की ताकत सबसे सादे तरीके से दिखाई गयी है -- जिसमें दोनों बिस्तर पर लेट कर अमीर बनने के अजीब तरीके सुझाते हैं, जैसा कि उम्मीद खो चुके दो लोग करते हैं।
कुछ बड़ा करने की यही चाह उनकी ताक़त है।
149 मिनट में, बोस अपने किरदारों की हर छोटी से छोटी जानकारी हमें देना चाहती हैं -- अदिति-निरेन का पहला बच्चा हो, उनका छोटा बेटा ईशान और विदेश को लेकर उसकी चिंता हो, उससे दूर रहने को लेकर अदिति के मन का अपराध-बोध हो या फिर जोड़े की जलन और आयशा की रोमैंटिक इच्छाऍं हों।
यहीं पर बोस एक दशक आगे जाकर आयशा की किशोरावस्था के वर्षों की झलक और उसकी बिगड़ती हालत दिखाती हैं।
लेकिन अब, इसमें अदिति भी शामिल हो गयी है।
बची हुई ज़िंदग़ी में बेटी को हर तरह के सुख देने की ख़्वाहिश -- प्रेमी, एक किताब का प्रकाशन और अंडमान-निकोबार में स्क्यूबा डाइविंग -- सुपर मॉम की सेहत ख़राब कर देती है।
प्रियंका एक झलक में पूरे जीवन का परिचय दे देती है।
निष्कपट और बुलंद इरादों वाली, बिना दबाव बनाये सहानुभूति रखने वाली प्रियंका के दमदार परफॉर्मेंस में हर तरह की भावनाओं का इंद्रधनुष दिखाई देता है।
उसकी आवाज़, आँखों, हाव-भाव में ताक़त और दृढ़ता, अपने दिल और दिमाग की सुनने वाली अदिति के रूप में उसका हर दृश्य, हर भाव आप महसूस कर सकते हैं।
आपको सिर्फ उसकी कलाकारी देखने के लिये द स्काय इज़ पिंक ज़रूर देखनी चाहिये।
फोन बूथ के उस सीन में उसकी कलाकारी और भी निखर कर आती है, जब वह भारत में अपने सिसकते स्कूल जाने वाले बेटे को आसमान को उसकी मर्जी से कोई भी रंग देने के लिये बढ़ावा देती है और कहती है कि यह उसका अधिकार है, जो उससे कोई नहीं छीन सकता।
उसके सादे और नम्र पति के रूप में फ़रहान अख़्तर का शांत अंदाज़ उसके किरदार की बढ़ती झुंझलाहट और तकलीफ़ को दिखाने के लिये बिल्कुल सही लगता है।
कम में ज़्यादा वाले उसके अंदाज़ के साथ वह जितना दिखता है, उससे कहीं ज़्यादा सख़्त है।
ज़ायरा वसीम का अभिनय काबिल-ए-तारीफ़ है।
दुःख की बात यह है कि आयशा पर्दे पर उसका आख़िरी किरदार है।
उसका कुदरती अभिनय उसकी हर झलक में दिखाई देता है, चाहे वह मज़ाक कर रही हो 'सोनिया नाम में ही इतना ऊम्फ है, प्राइम मिनिस्टर हिल जाते हैं', या सीक्रेट सुपरस्टार में आमिर ख़ान द्वारा उसे दी गयी नसीहतों की नकल कर रही हो या अपने भाई को दिल तोड़ने वाला फोन कॉल कर रही हो।
भाई के रूप में रोहित सर्राफ़ ने सादग़ी और सहयोग के साथ अपने किरदार को बख़ूबी पेश किया है।
द स्काय इज़ पिंक ने अपनी चमक को ख़ूबसूरत अंदाज़ में बिखेरा है।
बढ़ती उम्र ज़्यादा गंभीर नहीं है और बोस ने इस बात का ध्यान रखा है कि कोई ज़्यादा पीड़ित न दिखाई दे।
लेकिन बीमारी के साथ समझौते को बहुत ज़्यादा दिखा कर आयशा की बीमारी को हल्का करने की कोशिश की गयी है।
प्रेरणात्मक स्पीकर के रूप में उसकी बहुत कम झलक दिखाई गयी है, जिसे और भी बेहतर तरीके से दिखाया जा सकता था।
हमें सख़्ती से स्वच्छ, शुद्ध वातावरण की बेड़ियों में उलझी और परेशान माता-पिता तथा दोस्तों की परवाह के बीच जकड़ी किशोरी की झलक पूरी तरह कहीं भी दिखाई नहीं देती है।
कहानी को आयशा के नज़रिये से कहा गया है, इसलिये कई बार समझ में नहीं आता कि वह क्यों अपनी भावनाओं को पूरी तरह छुपा कर सिर्फ अपने माता-पिता की कहानी सुनाती है।
काश बोस ने अपने दर्शकों की संवेदनशीलता में थोड़ा विश्वास दिखा कर दुःख भरे अंतिम शब्दों को कहानी में शामिल न किया होता, जो रुलाने वाली आम फिल्मों की पहचान हैं।
क्या बिना बोले इसे दिल से महसूस नहीं किया जा सकता?
हमें ख़ुद चीज़ों को महसूस करने देने के बजाय, हमें बताया जा रहा है कि हमें कब रोना चाहिये।
इन कुछ पलों में आसमान पिंक कम प्लान्ड ज़्यादा लगता है।