छिछोरे इतनी मज़ेदार है, कि इसकी सारी गलतियाँ मस्ती के पीछे छुप जाती हैं, सुकन्या वर्मा ने महसूस किया।
कुछ डैडी दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे के अनुपम खेर जैसे होते हैं, जो अपने बेटे की ग़लतियों का जश्न शैम्पेन की बोतल खोल कर मनाते हैं।
तो कुछ बापू दंगल के आमिर ख़ान जैसे होते हैं, जो ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतने के अपने सपने को पूरा करने के लिये अपने बेटियों को ज़बर्दस्ती काम पर लगा देते हैं।
डायरेक्टर नितेश तिवारी ने ख़ान के सपने की खाली जगह को भरते हुए खेर का एक ज़्यादा वास्तविक रूप पर्दे पर उतारा है, जिसे बेहद प्यार भरी कहानी, छिछोरे में फादर्स डे के आदर्श पिता कहा जा सकता है।
बस फर्क इतना है कि यह फिल्म माता-पिता होने पर कम और जवानी के दिनों, अनुभव पाने और लंबी दोस्ती निभाने जैसी चीज़ों पर ज़्यादा ध्यान देती है।
कई बार आपका बच्चा जितना आपकी सफलता से सीखता है, उससे कहीं ज़्यादा सीख उसे आपकी हार से मिलती है।
तिवारी ने एक साथ चलती दो अलग-अलग कहानियों को साथ पिरोया है, जिसमें अतीत और निर्मल आनंद के बराबर हिस्से हैं।
हालांकि यह फिल्म रफ़्तार पकड़ने में थोड़ा वक़्त लेती है, लेकिन रफ़्तार पकड़ने के बाद यह इतनी मज़ेदार हो जाती है, कि आप इसकी सारी ग़लतियाँ भूल जाते हैं।
कहानी तब शुरू होती है, जब अनि (सुशांत सिंह राजपूत) और माया (श्रद्धा कपूर) का किशोर बेटा (मुहम्मद समद) आत्महत्या की कोशिश के बाद गंभीर चोट के कारण अस्पताल में भर्ती हो जाता है।
माता-पिता की इंजीनियरिंग डिग्री का दबाव सहन करना उसके लिये असंभव हो जाता है।
वह लूज़र के ठप्पे के साथ नहीं जीना चाहता और उसे पता नहीं है कि ज़िंदग़ी में हार का सामना करना भी सफलता पाने जितना ही मायने रखता है।
जब अनि फ़ैसला करता है कि उसकी हार की कहानी उसके बेटे के हौसले को जगा सकती है, तो माया को उसकी बात में दम नहीं लगता।
हमें पता नहीं चलता कि ऐसा क्यों है।
दोनों के बीच एक दरार आ जाती है, जिसका कारण दिखाया नहीं गया है।
सुनने में आता है कि उसने कभी सॉरी नहीं कहा, और इसने कभी इट्स ओके नहीं कहा।
लेकिन जैसे ही कहानी कॉलेज के पुराने दिनों में जाती है, उनका ये झगड़ा ख़त्म हो जाता है और उन दिनों का ज़िक्र छिड़ जाता है जब कैन्टीन के खाने में पता ही नहीं चलता था कि कद्दू क्या है और आलू क्या और हवस के पपीते और हेली’ज़ कॉमेट जैसे दोस्त हुआ करते थे।
वरुण शर्मा ने बख़ूबी एक अश्लीलता से भरा सेक्सा का किरदार निभाया है, जिसका दिमाग़ और बंटी पोर्न मैग़ज़ीन्स के पन्नों के बीच उलझा रहता है।
उसने बहुत सी लाइन्स कही हैं, जिसपर सीटियाँ बजती हैं और ‘पॉटी पे धनिया’ इनमें से सबसे बेहतरीन है।
नवीन पॉलिशेट्टी के दमदार किरदार एसिड की ज़ुबान बहुत ही तेज़ और तीखी है।
तुषार पांडे के बेहतरीन अभिनय के साथ मम्मी का चिड़चिड़ापन भरा प्यार और भी ख़ूबसूरत लगता है।
हालांकि सहर्ष कुमार हमेशा नशे में धुत्त रहने वाले बेवड़े के किरदार में थोड़े जँचते नहीं हैं, लेकिन दूसरी ओर हमेशा लड़ने के लिये तैयार ताहिर राज भसीन का चेन स्मोकर किरदार डेरेक आग उगलने के लिये तैयार रहता है।
सुशांत सिंह राजपूत का अनि का किरदार कैम्पस की एकमात्र ख़ूबसूरत लड़की पर फ़िदा है, लेकिन बाद में उसे अपनी भावनाओं को काबू में रख कर जीसी (जनरल चैम्पियनशिप) जीतने पर ध्यान लगाना पड़ता है।
फिल्मों में, शिक्षा आपको क्लासरूम्स के बाहर ही मिलती है।
आपको इसमें कहीं-कहीं जो जीता वही सिकंदर, 3 ईडियट्स या स्टूडंट ऑफ़ द इयर जैसी झलक दिख सकती है, लेकिन जैसे हर बैच पिछले बैच से अलग होता है, वैसे ही तिवारी और उनके लेखकों पीयूष गुप्ता और निखिल मल्होत्रा ने छिछोरे को इसकी अपनी पहचान और भाषा दी है। और मुख्य भूमिका निभाते छः किरदार हमारा दिल जीत लेते हैं।
उनकी ज़रा हटके चलने वाली बातें, मज़ेदार चुटकुले और हँसाने वाली शरारतें हमें हमारे कॉलेज के दिनों में वापस ले जाती हैं, भले ही आप इंजीनियरिंग कॉलेज या हॉस्टेल में न भी रहे हों।
छिछोरे ने इन किरदारों के आपसी रिश्तों, प्यार और ओछेपन के साथ अपनी ख़ुशमिजाज़ कहानी को बुना है।
लेकिन फिल्म में, और फिल्म के साथ हर चीज़ सही तो नहीं है।
जितनी बार कहानी मज़ेदार अतीत से अंधेरे वर्तमान में कदम रखती है, उतनी बार आप भावनाओं में उलझ जाते हैं। यह बदलाव थोड़ा भटकाने वाला हो सकता है।
यह प्रतियोगिता जीत की कोशिशों की तरह की कहानी को दिशा देती है।
प्रतीक बब्बर का घमंडी राइवल का किरदार पुराने दिनों की इस कहानी के लिये भी घिसा-पिटा लगता है।
सच कहा जाये तो छिछोरे वक़्त को बदलने में सफल नहीं हो पाती। इसमें मूड और व्यक्तित्व की कमी है। सिर्फ बैगी जीन्स, स्ट्रिप्ड कॉलर टी-शर्ट्स और गोल्ड स्पॉट की बोतलों से वक़्त बदल नहीं जाता।
और उम्र का बढ़ना भी सही तरीके से नहीं दिखाया गया है।
किसी भी किरदार की उम्र सही तरीके से बढ़ी हुई नहीं लगती।
मेक-अप या तो ज़रूरत से ज़्यादा है, या फ़ीका है। ख़ास तौर पर श्रद्धा कपूर का मेक-अप, जो संजीदा तो लग रही हैं, लेकिन एक किशोर उम्र के बच्चे की माँ बिल्कुल नहीं लगतीं।
सुशांत सिंह राजपूत को अभिनय के कई दमदार पल मिले हैं, लेकिन कई बार उम्र का ठीक से नहीं दिखाया जाना उनके अभिनय पर हावी हो जाता है।
छिछोरे ने सबसे ज़्यादा हुनर दिखाया है लेखन में।
पूरी कहानी में सकारात्मकता आपका मनोरंजन करती रहती है।
IIT बॉम्बे के छात्र रह चुके तिवारी दर्शकों के 'पजामाछाप हमेशा पजामाछाप ही रहता है' बटन को पहचानते हैं और हर पल उसे दबाते रहते हैं।
भले ही इसके परिणाम का अंदाज़ा लगाना आसान हो, लेकिन यही तो छिछोरे का सिद्धांत है -- सफ़र का मज़ा लो, मंज़िल के बारे में मत सोचो।