...आप कुछ और महसूस भी नहीं कर पाएंगे, सुकन्या वर्मा को लगता है।
हिंदी सिनेमा के कॉस्ट्यूम ड्रामाज़ की सबसे ख़ास बात ये होती है कि वो दर्शकों को दूसरे दौर में ले जाते हैं। कहानी काल्पनिक हो या ऐतिहासिक, इसकी सफलता पूरी तरह इसमें दिखाई गयी दुनिया के वासियों पर निर्भर करती है।
ऐसी कहानी की ऊंचाइयाँ पर्वतों सी, तो गहराइयाँ पाताल सी होनी चाहिये। इसमें छोटी सी भी कमी इन्हें देखने का मज़ा किरकिरा कर देती है। भावनाएँ ही सब कुछ हैं। लेकिन आज-कल दर्शकों को विश्वास दिलाने की भाषा बदल गयी है और हर कोई रंगमंच को हक़ीक़त बनाने की कला में पारंगत नहीं है।
संजय लीला भंसाली की धमाकेदार पेशकश के रूप में धर्मा प्रॉडक्शन्स की सितारों से भरी मज़ेदार मूवी कलंक में यह कमी साफ़ दिखाई देती है।
अभिषेक वर्मन (2 स्टेट्स) द्वारा डायरेक्ट की गयी यह 168 मिनट लंबी सोप ओपेरा (इसमें लक्स का भी प्रचार किया गया है) शिबानी भटीजा की कहानी पर आधारित है और इसमें हुसैन दलाल के डायलॉग लिये गये हैं। यह कहानी वास्तविक दुनिया और काल्पनिक सोच के बीच की भूलभुलैया के बीच फँसी हुई है। कहानी दिल को तो नहीं छूती, लेकिन देखने में आकर्षक ज़रूर है।
अपनी बिखरी हुई टाइमलाइन - 1944, 1946 और 1956 के बीच कलंक ने भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के समय चल रही सामुदायिक अशांति के दौरान समाज की बेड़ियों को तोड़ कर पनपते प्यार की झलक दिखाई है।
इसकी भव्यता को देखते हुए, हम इसमें डरावने इतिहास पर बनी दीपा मेहता की 1947: अर्थ के जैसा कुछ भी देखने की उम्मीद नहीं कर सकते। बल्कि यह फिल्म पाक़ीज़ा और मेरे महबूब की मिली-जुली कहानी सी लगती है, जिसमें दिखाया गया डरा-सहमा रोमांस ऐसे समय में ले जाता है, जब नाजायज़ रिश्ते और कोठे बदनामी का सबसे बड़ा कारण होते थे।
अगर पुराने ज़माने की बात करें, तो कलंक में बस एक ही चीज़ पुरानी दिखाई देती है, बात करने का पुराना लहज़ा, और वही पुराने डील-डौल वाले शरीर।
जब हम पहली बार रूप (आलिया भट्ट्) से मिलते हैं, वो शहर के बीच आधा पेट दिखाने वाला लहंगा पहने दौड़ती दिखाई देती है, ऐसा करने की हिम्मत 1940 में शायद ही कोई लड़की रखती हो। उसका पहनावा उसके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता।
जब सत्या अपना बेमतलब प्रस्ताव उसके सामने रखती है, तो वो उसे स्वीकार कर लेती है, और फिर पछताती है। कलंक की शेष कहानी रूप और उसकी इस बेवकूफी की भरपाई के इर्द-गिर्द घूमती है।
गौरतलब है कि सत्या (अपने लुटेरा के भरी-भरी आँखों वाले उदास किरदार को दुहराती हुई सोनाक्षी सिन्हा) का दिमाग कल हो ना हो के शाहरुख खान की तरह चलता है, लेकिन इसमें न तो वो गुदगुदाने वाली मसखरी है और न ही शरारत।
फिल्म में कहीं भी बताया नहीं गया है कि सत्या रूप को क्यों चुनती है और न ही उसकी 'गलती को सुधारने' के रहस्य का खुलासा किया गया है।
लाहौर के बाहरी हिस्से में बसे एक सपनों जैसे लगने वाले शहर में रूप अपने कदम रखती है, जहाँ उसके आलीशान मकान और उसकी भव्य खिड़की से ख़ूबसूरत नज़ारा दिखाई देता है, जिसके बाद बहार बेग़म (माधुरी दीक्षित) के साथ एक शानदार गाने और डांस के दौरान मर्दों --देव, जो चुप-चुप सा रहता है (आदित्य रॉय कपूर), बलराज, ज़रा हट के (संजय दत्त) और ज़फ़र, ऐयाश (वरुण धवन) से उसकी बातचीत शुरू होती है।
इसमें कुणाल खेमू भी हैं, जो सूरमे से भरी आँखों और ताक़िया (स्कलकैप़) पहने हिंदुओं को निकाल बाहर करने की बात करते दिखाई देते हैं। फिल्म में इंसानियत वाले सिर्फ दो ही मुस्लिम हैं, नाचने वाली लड़की और उसका नाजायज़ बच्चा।
भव्यता में सराबोर, कलंक के बारीकी से बनाये गये फ्रेम्स इसमें ज़रूरत से ज़्यादा दिखाई गयी समृद्धि की झलक देते हैं।
फीते के पर्दे और मखमली रथ, कमल से भरे ख़ूबसूरत तालाबों में तैरती आलीशान नावों, बड़ी-बड़ी वीणा और विशालकाय कंदील, नायाब शाही पोशाक, रानी के जैसे गहने, बैले से प्रेरित उत्सव और संगीत से भरी इस फिल्म के फूलों और मशालों के बजट में ही एक पूरी फिल्म प्रोड्यूस हो सकती थी।
एक साधारण इंटरव्यू सीन में भी आलिया बैंगनी दीवारों से लगे एक शानदार फ्रेंच सोफे पर दिखाई देती हैं। कलंक उन बेहद कम फिल्मों में से एक है, जिनमें कॉस्मेटिक ख़ूबसूरती (बिनोद प्रधान की सिनेमेटोग्राफी, अमृता महल नकाई की सेट डिज़ाइन और मनीष मल्होत्रा के कॉस्ट्यूम्स) फिल्म की कहानी से ज़्यादा कुछ कह जाती है।
दिलचस्प बात है कि संचित और अंकित बलहारा का बैकग्राउंड स्कोर थॉमस न्यूमैन की अमेरिकन ब्यूटी की याद दिलाता है।
लेकिन कमज़ोर ट्विस्ट्स और बनावटी मेलोड्रामा की इस फिल्म में ख़ूबसूरती ही दर्शक को रिझा सकती है। कुछ गाने ज़बर्दस्ती ठूंसे गये हैं, ख़ास तौर पर कृति सेनन का आइटम नंबर और माधुरी का बड़ा डांस मोमेंट।
कलंक की राजनैतिक और उलझी कहानी में नौ-भागों की मिनी-सीरीज़ बन सकती थी। ज़्यादातर बड़ी डील-डौल वाले बेमतलब किरदारों और रोमांस, धोखा, नैतिकता, कुर्बानी, ख़ूबियों, सिद्धांतों और मसाले से भरी लगभग तीन घंटों की यह कहानी कुछ ज़्यादा ही लंबी खिंची हुई लगती है।
पूरी दुनिया का पश्मीना भी संजय दत्त के अश्लील व्यक्तित्व और उनकी गुटखे की पीक से ढकी डायलॉग डिलिवरी को नहीं छुपा सकता।
वरुण धवन की ख़ूंखार और इश्कबाज़ लगने की कोशिश बेहद हास्यास्पद लगती है, जब उन्हें बिना पलक झपकाये अपनी आँखों की कशिश को अपनी पलकों के ऐतराज़ से छुपाने की कोशिश ना करें जैसी लाइन्स बोलने के लिये कहा गया है।
ऐसी लाइन्स बोलने में शायद राजकुमार भी घबरा जाते। आलिया के साथ उनकी अच्छी केमिस्ट्री कलंक के रंगमंच पर कमज़ोर पड़ जाती है।
हालांकि आदित्य रॉय कपूर ट्रेडिशनल पोशाक में ख़ूबसूरत लग रहे हैं, उनमें इस तरह के किरदार निभाने के लिये जैकी श्रॉफ़ वाली बात नहीं है।
आलिया भट्ट ने पूरी फिल्म में अच्छा अभिनय किया है। लेकिन हैरान कर देने वाले मनमौजी अवतार से प्यार में डूबे कमज़ोर किरदार के बीच उनके बदले रूप के कारण लोगों को समझ नहीं आता कि वो आखिर हैं कौन।
सिर्फ दूसरी दुनिया की लगने वाली माधुरी दीक्षित ही कलंक के अदाओं से भरे भारी-भरकम वातावरण में असंगत नहीं लगतीं। उनकी दर्द भरी आँखें और पारंपरिक रूप इस अलग सी दुनिया के सुर को पकड़ लेते हैं, इसमें घुल जाते हैं और इसके साथ रम जाते हैं।
इस बेहद लंबी मूवी के अंत में, आलिया पूछती हैं, 'आपने इस कहानी में क्या देखा? कलंक या प्यार?
मैंने खालीपन से भरी ख़ूबसूरती देखी। आप अपनी नज़रें तो नहीं हटा पायेंगे। लेकिन आप और कुछ महसूस भी नहीं कर पायेंगे।