अर्जुन कपूर को सादगी और भावहीनता के बीच का फ़र्क नहीं पता, सुकन्या वर्मा का कहना है।
एक आतंकवादी का पीछा करती इंटेलिजेंस टीम अपने अफसर को पल-पल की ख़बर दे रही है: वो बस स्टॉप पर खड़ा है। वो बस में जाता है। बस चल रही है। वो चल रहा है। दूरी बनाये रखो। वो एक स्टॉप पहले उतर जाता है।
गूगल मैप्स पर रास्ते देख लेना राजकुमार गुप्ता द्वारा दिखाई गयी IB ऑफ़िसर्स की ज़िंदग़ी की इस झलक को देखने से कहीं ज़्यादा मज़ेदार होगा।
असलियत दिखाना अलग बात है और उसमें से पूरा मज़ा निकाल लेना अलग।
सच्ची घटनाओं पर आधारित, इंडियाज़ मोस्ट वॉन्टेड एक ख़ुफ़िया ऑपरेशन की सबसे बेजान कहानी और उस ऑपरेशन को करने वाले गुमनाम नायकों को श्रद्धांजलि है।
कहानी में एक रोमांचक जासूसी किस्से की सारी ख़ूबियाँ हैं - टीम जुटाना, दूर-दूर का सफ़र करना, ख़ुफ़िया सोर्सेज़, चालाक हीरो, चुनौती भरी समय-सीमा और राजनैतिक सिरदर्द - लेकिन हमेशा ड्रामा से दूर रहने की गुप्ता की फ़िज़ूल की ज़िद इंडियाज़ मोस्ट वॉन्टेड को नीरस और बेजान बना देती है।
और हमारे सामने आती है एक बेहद धीमी, सुस्त और कमज़ोर मूवी।
पूरे भारत में हुए बम धमाकों के बाद इनवेस्टिगेशन ऑफ़िसर प्रभात (अर्जुन कपूर) एक आतंकवादी, ‘बम वाले शैतान’, यानि कि असल ज़िंदग़ी में यासिन भटकल, को पकड़ने के लिये पाँच लोगों का क्रू तैयार करते हैं, जिसकी ख़बर उन्हें नेपाल में तैनात उनके ख़ुफ़िया मुखबिर (अपने भीतर के कादर ख़ान को सामने लाते जीतेन्द्र शास्त्री) से मिलती है।
इंडियाज़ मोस्ट वॉन्टेड के अनुसार, आतंकवादी को पकड़ने में भारतीय अधिकारियों की ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है, और यह काम मामूली तनख़्वाह पर ज़्यादा काम करने वाले कर्मचारी देश की सेवा के तौर पर कर रहे हैं। इसलिये हिचकिचाने वाले बॉस (राजेश शर्मा) के साथ बिना किसी आर्थिक सहयोग के ये देशभक्त चार दिन के भीतर आतंकवादी को पकड़ने का फैसला करते हैं।
अगर उनकी देशभक्ति आपको अभी भी दिखाई नहीं दे रही है, तो बैकग्राउंड में गूंजता वंदे मातरम सुनें।
प्रभात और उसके साथियों को हमेशा एक साथ काम करते देख कर उनके बीच दोस्ताना व्यवहार की कमी थोड़ी अजीब लगती है। कभी-कभी उनके परिवारों के साथ होने वाली उनकी नीरस बातचीत के अलावा, सपोर्टिंग कास्ट के सभी गुमनान किरदार लगभग बेमतलब इस्तेमाल किये गये हैं। बस वो विश्वास करने लायक लगते हैं, उससे ज़्यादा कुछ नहीं। लेकिन सिर्फ असली लगने का मतलब क्या है अगर अपनी कोई पहचान ही न हो?
विलेन (सुदेव नायर) की क़िस्मत और भी ख़राब है। उनका किरदार बस ख़ूंखार आँखों, लंबी-उलझी दाढ़ी और 'मरेंगे या मारेंगे। मिलेगी तो जन्नत ही।' जैसी भारी-भरकम बातों में ही फँसा रह जाता है।
यही वो आदमी है, जिसकी वजह से शाह रुख़ ख़ान को न्यू यॉर्क एयरपोर्ट पर मुश्किलों का सामना करना पड़ा था, इस बात को मूवी में दिखाया तो गया है, लेकिन मूवी इसे किसी बुरे आदमी की ताकत या दुष्टता के रूप में पेश नहीं कर पाती।
हालांकि काठमांडू के ख़ूबसूरत नज़ारों से आँखों को तो राहत मिलती है, लेकिन इंडियाज़ मोस्ट वॉन्टेड ने बेमतलब ड्रोन शॉट्स से ज़्यादा इसकी ख़ूबसूरती का कोई फायदा नहीं लिया है।
मिठास घोलने में गुप्ता हमेशा से कमज़ोर रहे हैं और उन्हें म्यूज़िक की ज़्यादा समझ नहीं है।
ऐसे हालातों में, बाकी चीज़ों की कमज़ोरी के बीच कम्पोज़र अमित त्रिवेदी का बैकग्राउंड स्कोर सबसे आगे निकलने की कोशिश करता है। इसमें आपको वेस्टर्न से लेकर विक्टोरियन ड्रामा और फ्रेंच कंट्रीसाइड रोमांस तक सब कुछ सुनने को मिलेगा।
बड़े दुःख की बात है कि बेसुरी धुनें भी आपको या इस मूवी को नींद से नहीं जगा पायेंगी।
तनाव और दर्द की कमी के कारण इंडियाज़ मोस्ट वॉन्टेड का मिशन प्लम्बिंग के काम से ज़्यादा रोमांचक नहीं लगता। आप सोच सकते हैं कि वो कहानी कितनी नीरस होगी जिसकी एकमात्र तेज़-रफ़्तार घटना एक सपने का सिक्वेंस है।
मुश्किलें दिखाने के लिये गुप्ता ने ISI की रुकावटों, नेपाल के सुरक्षा बलों की ओर से विरोध और अपना मुंह फेर चुकी भारत की टीम को कहानी में पिरोया है। इसे सोच-समझ कर नहीं पेश किया गया है और गुप्ता के पास पूरी तरह फिल्मी हो जाने के सिवा और चारा नहीं बचा है, जिसके कारण प्रोटोकोल तोड़ने वाले प्रभात बिल्कुल बॉलीवुड हीरो वाले अंदाज़ में उतर आते हैं।
परेशानी ये है कि अर्जुन कपूर को सादगी और भावहीनता के बीच का फ़र्क नहीं पता। उनके बेजान अभिनय में न तो IB दल के लीडर जैसा दम है और न ही भाव।
इसकी सुस्त रफ़्तार बर्दाश्त से बाहर है। आपको किराने की दुकान की CCTV फुटेज में भी पूरी इंडियाज़ मोस्ट वॉन्टेड से कहीं ज़्यादा हलचल दिखाई देगी।