यह सिर्फ मेक इन इन्डिया भर नहीं है; यह इससे कहीं ज़्यादा है। इसके डिज़ाइन से लेकर इसके निर्माण को संपन्न किए जाने तक का कार्य भारत में ही किया गया है।
फोटो: सुधांशु मणि, दाएं, निवर्तमान महाप्रबंधक, इन्टीग्रल कोच फैक्टरी, ट्रेन 18 – वर्तमान में वन्दे भारत एक्सप्रैस का कन्ट्रोल पैनल निवर्तमान रेलवे बोर्ड के चेयरमैन अश्वनी लोढानी को समझाते हुए। फोटोग्राफ: पीटीआई फोटो।
बिना इंजन की फास्ट ट्रेन बनाने का कार्य जब इन्टीग्रल कोच फैक्टरी में आरंभ हुआ उस समय भारत में तमाम तरह के क़यास लगाए गए। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि भारत कभी विश्व स्तरीय ट्रेन अपने आप बना पाएगा।
दिसंबर 2018 में, ट्रेन 18, भारत की सबसे तेज़ चलने वाली इंजन रहित ट्रेन चेन्नई से चली और अब इस ट्रेन का नाम बदल कर वन्दे भारत एक्सप्रैस कर दिया गया है जो कि नई दिल्ली से वाराणसी के बीच चलती है।
इस ट्रेन 18 के स्तंभ पुरुष सुधांशु मणि हैं, आप निवर्तमान महा प्रबंधक, आईसीएफ हैं। आप इस ट्रेन के चलना आरंभ होने के तुरंत बाद दिसंबर 2018 में ही सेवानिवृत्त हो गए।
रीडिफ़.कॉम की शोभा वारियर को इस विचार के मन में आने से लेकर इसे कार्यरूप में परिणत करने तक की गाथा समझाते हुए सुधांशु मणि ने कहा कि, भारत में चूंकि सफलता की कहानियां लिखी नहीं गईं इसलिए सफलता शब्द पर भरोसा ही नहीं होता, असफलता के प्रति हम आश्वस्त रहते हैं।
कुछ दिनों पहले आपने अपने मोबाइल नंबर को ट्वीट कर हर तरह के सवालिया लोगों से कहा था कि उनके मन में ट्रेन 18 को लेकर कोई बात हो कि ट्रेन18 पूरी तरह से भारत में कैसे बनी तो वे आपसे बात करें। तो उस तरह से आप द्वारा ट्वीट किए जाने पर आपको किसी ने उल्टी बात कही हो तो क्या आपको बुरा लगा या ग़ुस्सा आया?
मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लगा। ना ही मुझे ग़ुस्सा आया। हमने आईसीएफ में डट कर मिल-जुल कर कार्य करने की शानदार भावना के साथ कार्य किया और देखते ही देखते हमने विश्व स्तरीय ट्रेन बनाकर सामने रख दी।
हम जानते हैं कि हमने क्या किया है। लंबी दूरी के लिए इस ट्रेन को जब 180 किमी/घंटे से भी अधिक की रफ़्तार से जब दौड़ाया गया तब मेरे साथ तमाम अन्य व्यक्तियों के साथ आईसीएफ में वरिष्ठता क्रम में द्वितीय अधिकारी तथा रेलवे सुरक्षा आयुक्त थे।
आज किसी ने बिना कुछ जाने-समझे एक वीडियो बना कर तमाम लोगों को भेज दिया है। इससे हमारे किए पर न तो कोई आंच आएगी न ही आईसीएफ की उपलब्धि ही कहीं उन्नीस पड़ जाएगी।
इस वीडियो को देखने के बाद भी मुझे बुरा नहीं लगा, लेकिन अगर किसी के मन में कोई शक-शुबहा है तो मैं उसे दूर करना चाहूंगा।
झूठा वीडियो बनाकर इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है कि जिस उद्देश्य से इस ट्रेन को बनाया गया था उस पर यह खरी नहीं उतरती।
झूठे वीडियो के माध्यम से जिन लोगों ने हमारी उपलब्धि का मज़ाक उड़ाने की कोशिश की है मैं उन सब लोगों को बताना चाहता हूं, मुझे कॉल कीजिए, मैं आपको हमारी उपलब्धि बताऊंगा।
यह ट्रेन जब पहले दिन यात्रियों को लेकर चली तो इसमें कुछ तकनीकी खराबी आ गई जिसके चलते पहले से कमर कसे बैठे तमाम लोगों ने इस उपलब्धि पर बट्टा लगाने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए एक कारोबारी किरण मज़ूमदार शॉ ने ट्वीट किया कि इससे पता चलता है कि आईसीएफ के लोगों में इंजीनियरिंग के ज्ञान और तकनीकी योग्यताओं की कमी है। आपने क्या जवाब दिया?
मैं व्यक्तिगत रूप से किसी को जवाब नहीं देता। आमतौर पर, जब आप इतने बड़े महत्व और स्तर की ट्रेन बनाते हैं तो हमें इस ट्रेन को एक या दो महीने तक बड़ी ही कड़ी स्थितियों में दौड़ा कर फील्ड परीक्षण के माध्यम से इसे गुज़ारना होता है। चूंकि इस ट्रेन की चर्चा बहुत थी तो ऐेसे में हम ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि पूरा देश इसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
मेरा मतलब यह नहीं है कि इसमें कुछ गलत हो गया बल्कि आमतौर पर यात्री सेवा आरंभ करने से पहले फील्ड परीक्षण किया जाता है। तो पहले दो मास में हो सकता है कि कुछ गड़बडि़यां सामने आएं जिनका समाधान आईसीएफ की टीम कर देगी।
एक से डेढ़ महीने में ट्रेन बिल्कुल सही हो जाएगी।
भारत में सफलताओं के अभाव के कारण यहां लोगों को सफलता का नाम सुन कर भरोसा नहीं होता और हम असफलताओं के प्रति आश्वस्त रहते हैं। मैं नहीं कहता कि सभी ऐसे हैं लेकिन हां कई लोग ऐसे हैं। लेकिन ऐसे लोगों से फर्क नहीं पड़ता।
एक या दो महीने में आईसीएफ पूरी तरह से इन समस्याओं का समाधान खोज लेगी। उसके बाद, मुझे नहीं लगता कि कोई समस्या रह जाएगी।
एक समस्या मुझे लगती है कि इस ट्रेन को फैन्सिंग लगे ट्रैक पर चलाए जाने के लिए बनाया गया है ताकि ट्रैक पर जानवर न आने पाएं।
यदि आपके पास फैन्सिंग वाले ट्रैक नहीं हैं तो आप इसके सामने एक गार्ड लगाएं, लेकिन हम नहीं चाहते कि इसके सामने गार्ड लगाकर इसकी खूबसूरती को बिगाड़ा जाए और इंजन जिस तेज़ी से हवा को चीर कर आगे बढ़ता है उसमें बाधा आए। इसलिए हमने इसके आगे गार्ड नहीं लगाया है।
1981 में भारतीय रेल में कार्यभार संभालते समय आपने कहा था कि आपकी इच्छा है कि आप और देशों की तरह से भारत में इंजन रहित ट्रेन बनाएं...
यह बात 90 के शुरुआती दशक की है जब मुझे लगा कि पूरी दुनिया में इंजन रहित ट्रेनों का ज़माना आ गया है। विभागीय स्तर पर किसी को आगे न निकलने देने सहित तमाम मुद्दों की वजह से यह काम रुका रहा।
जब मैं आईसीएफ का जीएम बना तब मैंने आईसीएफ के कर्मचारियों की क्षमता और उनके भीतर कुछ नया कर गुज़रने की भावना को समझा।
तब मैंने इसे करने का निर्णय लिया, और किसी विदेशी कंपनी से बिना कोई तकनीकी सहायता लिए इसे पूरी तरह से अपने स्तर पर ही कर डाला।
यही भावना थी जिसके रहते इन्टीग्रल कोच फैक्टरी के कर्मचारियों ने कार्य किया और इसे साकार किया।
आपने कहा कि आपके मन में यह विचार 90 के दशक में ही आ गया था, लेकिन आप इसकी शुरुआत 2016 में ही कर पाए। क्या आपने इससे पहले भी इसका प्रयास किया था?
जी हां, किया था।
मुझे पता था कि यह लहर पूरी दुनिया में चल रही है हम इसे रोक नहीं पाएंगे, देर भले ही हो जाए। इसे होना ही था।
तो जैसे ही मुझे इसे कर पाने की शक्ति मिली मैंने इसे किया।
अगस्त 2016 में मैं जब जीएम बना तब मैंने अपनी योग्यता को मापने के लिए 2, 3 मास का समय लगाया और जब मुझे लगा कि हम इसे स्वयं ही कर लेंगे तब मैंने अपने कर्मचारियों से इसे करने के लिए कहा।
मंत्रालय से स्वीकृति प्राप्त करना मेरा कार्य था और रेलवे बोर्ड के तत्कालीन चेयरमैन श्री (एके) मित्तल का अनुग्रह रहा है कि हमें स्वीकृति मिल गई। और कर्मचारियों की बदौलत हमने इसे साकार कर लिया।
आपने चाहा था कि यह पूरी तरह से भारत में ही बने। तो आप इसे नख से शिख तक पूरी तरह कैसे बना पाए?
पहली बात तो संकल्पना या डिज़ाइन की होती है। जब हमें लगा कि ऐसी भी कुछ बातें हैं जो हमारे बूते से बाहर की हैं तब हमने तीन सलाहकारों की सेवाएं लीं।
एक सलाहकार तो कार की बॉडी की प्रक्रियाओं और उन पर निगाह रखने के लिए और दूसरा 180 किमी/घंटे की रफ्तार से दौड़ने वाले डिब्बों को डिज़ाइन करने के लिए और तीसरा इन्टीरियर डिज़ाइन करने के लिए था। इन्होंने आईसीएफ में हमारी टीम के साथ मिल कर कार्य किया।
योजना यह थी कि इनके मार्गदर्शन में हमारे लोग डिज़ाइन तैयार करेंगे जिससे कि डिज़ाइन हमारी बौद्धिक संपदा बन जाए न कि इसके लिए हमें किसी और से संविदा करना पड़े।
क्या आपने आईसीएफ में ही सब कुछ बनाया या फिर कुछ पुर्जे आपने बाहर से भी खरीदे?
हमने यह बात पहले ही तय कर ली थी कि इसके सभी पुर्जे या तो आईसीएफ में बनाए जाएंगे या फिर इन्हें भारत के उद्योगों में ही बनाया जाएगा।
आपने दो साल से भी कम के समय में एक ट्रेन कैसे बना ली?
जी हां, हमने इस ट्रेन को 18 महीने से भी कम समय में बना लिया।
हमें अप्रैल 2017 में स्वीकृति मिली। टीम में से हर एक ने मुझसे कहा कि आज आप अपने नेतृत्व में यह कार्य करने के लिए हमसे कह रहे हैं और आप दिसंबर 2018 में रिटायर हो रहे हैं। क्या आपके रिटायर होने के बाद यह कार्य निरंतर चल पाएगा।
मैंने कहा कि हम भारतीय हैं और कठोर परिश्रम कर सकते हैं। और हम मेरे रिटायर होने से पहले इस ट्रेन को बना लेंगे। इस कार्य को पूरा करने के लिए हमारे पास मात्र 20 महीने का समय था।
तो उद्योग और सलाहकारों सहित सभी ने मिल कर कठिन परिश्रम किया। और 18 महीने में ट्रेन चलने के लिए तैयार हो गई।
इस बारे में रिकॉर्ड समय क्या है?
जी हां, पूरी दुनिया में स्वीकृति मिलने के बाद एक नई ट्रेन को विकसित करने में इसके प्रोटोटाइप को बनाने तक में 33 से 36 महीने का समय लगता है। लेकिन हमने यह कार्य 18 महीने में संपन्न कर लिया। वह इसलिए क्योंकि आईसीएफ के हर व्यक्ति ने लगन के साथ कार्य किया।
भारत में तेज़ गति से दौड़ने वाली ट्रेन को बनाने की पूरी प्रक्रिया कितनी चुनौतीपूर्ण रही?
निश्चित रूप से, इसे बनाकर कार्य को संपन्न करना दोनों ही संबंधों में यह चुनौतीपूर्ण था। इसलिए क्योंकि हमने जो समय सीमा अपने लिए तय की थी वह चुनौतीपूर्ण थी। हमारे तमाम समूहों की वजह से चुनौती तो रोज़ आया करती थी।
सच तो यह है कि चेयरमैन के अलावा रेलवे बोर्ड के अधिकतर लोगों को इसके साकार होने में शक था। बहुत से लोग यह चाहते थे कि इसे आयात कर लिया जाए क्योंकि यह कार्य भारत में नहीं किया जा सकता।
इस पूरी यात्रा में हमारे सामने बड़ी चुनौतियां आईं लेकिन हमारी टीम आत्मविश्वास से परिपूर्ण थी।
मेरा सौभाग्य है कि मेरी टीम बहुत अच्छी रही, खासतौर पर डिज़ाइन टीम। हमें उद्योग से भी बड़ा सहयोग मिला।
इस पूरी यात्रा में आपके लिए सबसे अधिक चुनौती भरा क्या रहा?
भारत में पहले कभी ऐसा डिब्बा नहीं बना था जो कि 180 किमी/घंटे की रफ्तार से ट्रेन को लेकर चल पाए। हमने बुद्धि से काम लिया और डिब्बों को डिज़ाइन करने के लिए सलाहकारों की सेवाएं लीं।
जब डिज़ाइन का कार्य पूरा हो गया तब यह पूरी तरह से भारत में निर्मित ट्रेन बनी।
हमें इसी तरह से आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि यह मात्र मेक इन इन्डिया भर नहीं है; यह उससे कहीं अधिक है।
डिज़ाइन से लेकर डिलीवरी तक सब कुछ भारत में ही किया गया।
चेन्नई की एक कंपनी ने इंटीरियर का पूरा कार्य किया।
चेन्नई और हैदराबाद की कंपनियों से कुछ पुर्जे लेकर पूरी कार बॉडी आईसीएफ में ही बनाई गई।
इसकी प्रणोदन (प्रोपल्शन) प्रणाली हैदराबाद की एक कंपनी ने बनाई।
असेम्बली और बहुत सारा निर्माण कार्य आईसीएफ में ही किया गया।
कुछ हिस्से जो कि भारत में नहीं बनाए जा सकते जैसे कि सीटें, कॉन्टैक्टलैस दरवाज़े, प्लग दरवाज़े, और ब्रेक सिस्टम मात्र इन्हें ही आयात किया गया।
इसे डिज़ाइन करने, इसकी संकल्पना और इससे संबंधित बौद्धिक संपदा का स्वामित्व भारत में आईसीएफ के पास है।
ट्रेन को चूंकि 180 किमी/घंटे की रफ्तार से दौड़ना था तो आपको कहीं कोई संदेह था कि क्या यह हमारे ट्रैकों पर दौड़ पाएगी?
नहीं, हमें अपने ट्रैकों के बारे में पता था। भारत में आज इस बात की आवश्यकता है कि 160 किमी/ घंटे की क्षमता वाले अधिक से अधिक ट्रैक हों।
हमने यह ट्रेन भविष्य के लिए बनाई है। ट्रैक सुधारने में बहुत पैसा और समय लगेगा। यह ट्रेन आने वाले कल के लिए तैयार है।
सच तो यह है कि यदि इस ट्रेन में कुछ परिवर्तन कर दिए जाएं तो यह 200 किमी घंटे की रफ्तार से दौड़ सकती है। कल यदि भारत 200 किमी/ घंटे की रफ्तार वाले ट्रैक बनाए तो भारत में ही यह ट्रेन उपलब्ध होगी। कहीं से आयात करने की आवश्यकता नहीं होगी।
अंतरिक्ष संबंधी तकनीक में हम दुनिया में चौथे नंबर पर हैं, लेकिन हम बाकी की दुनिया से रेलवे और ट्रेनों के मामले में इतने पीछे क्यों हैं?
यह बड़ा प्रश्न है किंतु इस ट्रेन के बनने के बाद जो संदेश गया है उससे यह पता चलता है कि हम भारत में ही बहुत कुछ बना सकने में सक्षम हैं।
हमें बस अपने संदेहों को मिटा कर आगे बढ़ना है।
हम 10 कार्य करेंगे तो सात कामयाब होंगे और 3 नाकामयाब इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम कोशिश ही न करें।
मैं यह संदेश देना चाहता हूं कि हम अपने ही देश में अगर प्रतिभा और लगन की तलाश करें तो इस देश में क्या नहीं किया जा सकता।
तकनीकी सेवाओं में भारत आज दुनिया में बहुत आगे है। आज आपने विश्व स्तरीय निर्माण कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया है, क्या आपको लगता है कि हम निर्माण के क्षेत्र में अपनी पिछड़ी दशा से उबर कर आगे निकल सकते हैं?
मेरा आशय भी यही है। हम निर्माण में बहुत कुछ कर सकते हैं। सच तो यह है कि न सिर्फ निर्माण बल्कि संकल्पना बनाने और डिज़ाइन या उसके बाद इसके निर्माण की इंजीनियरिंग में हम बहुत कुछ कर सकते हैं। अगर हम हौसले से काम लें तो इससे भी हमारी ताकत बढ़ेगी।
क्या आपको ऐसा लगता है कि निर्माण जगत में हम अपने आत्मविश्वास की कमी के कारण पिछड़े हुए हैं?
मुझे रेलवे पर ही बात करनी है। भारतीय रेलवे और इससे जुड़े उद्योग जो आज कर रहे हैं उनके पास इससे कहीं कुछ अधिक करने का ज्ञान और क्षमता है।
ट्रेन जब पटरी पर चलने लगी तो आपको कैसा लगा?
चेन्नई में जब यह चली तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। लेकिन सबसे ज़्यादा खुशी तब हुई जब इस ट्रेन ने 180 किमी/घंटे की रफ्तार को पार कर लिया।
और लोगों के साथ आईसीएफ के चीफ मैकेनिकल इंजीनियर ट्रेन में ही थे। जैसे ही सुई 180 के पार गई, उन्होंने एक वीडियो के साथ टैक्स्ट किया यह वीडियो आम जन तक पहुंच गया और पहुंचाया इसलिए गया कि इसमें पानी की एक बोतल ज़रा सी हिलती दिख रही थी।
आईसीएफ में खुशी की लहर दौड़ गई। हमारा सपना साकार हुआ और हम सब बहुत ही प्रसन्न थे।
आप ट्रेन पर क्यों नहीं थे?
पहली बार जब इस ट्रेन को चलाया गया तो किसी कारणवश मैं इस ट्रेन पर नहीं था। बाद में मैं इस पर एक या दो बार थोड़ी-थोड़ी दूर गया हूं। अभी तक मैंने इस ट्रेन से कोई लंबी यात्रा नहीं की है। लेकिन हमारी टीम के और लोग ट्रेन में थे।
क्या आपको लगता है कि रेलवे में आपके करीयर का यह सबसे ऊपर का उत्कर्ष बिंदु था?
इस परियोजना पर कार्य करना अच्छा लगा और इसके संपन्न हो जाने के बाद, और परियोजनाओं की ओर चलना होता है। निश्चित रूप से मेरे करीयर का यह उत्कर्ष बिंदु था।
आज आपने इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल की है तो क्या आप श्री ई श्रीधरन की तरह से ही भारतीय रेल के साथ जुड़े रहेंगे?
श्री ई श्रीधरन एक महान व्यक्ति हैं और उनके कृतित्व के कारण उन्हें पूरा देश जानता है।
सिर्फ रेलवे ही क्यों, जिस किसी क्षेत्र में कुछ सार्थक हो सकता हो, कुछ ऐसा हो सकता हो जहां हमारे देशवासियों को ऐसा लगे कि हां हम किसी से पीछे नहीं हैं तो मैं सदा उस कार्य को करने के लिए तैयार हूं।
हो सकता है कि हम दुनिया में सर्वश्रेष्ठ न हों लेकिन होने का प्रयास तो कर सकते हैं। मैं इसी भावना के साथ कार्य करना चाहूंगा।