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खुशियों ने इरोम शर्मीला का पता ढूंढ लिया
By अर्चना मसीह
June 27, 2019 21:50 IST

इरोम शर्मीला, 16 साल तक भूख-हड़ताल पर रहने वाली महिला ने हाल ही में जुड़वाँ बच्चियों को जन्म दिया। अर्चना मसीह/रिडिफ़.कॉम ने हाल ही में उनके साथ बिताई एक शांत दोपहर को याद किया।

फोटो: इरोम शर्मीला बेंगलुरु में एक शांत ज़िंदग़ी जी रही हैं। पिछले महीने उन्होंने जुड़वाँ बच्चियों को जन्म दिया है। फोटोग्राफ: Rediff.com के लिये सीमा पंत

"1 बज चुका है, चलो खाना खाते हैं।"

16 साल तक भूख हड़ताल पर रही इरोम शर्मीला, जिन्हें नाक से पाइप लगा कर ज़बर्दस्ती खिलाया जाता था, आज उनको अपनी प्लेट में चावल, सांभर, सब्ज़ी, सलाद, पापड़ परोसते और खाने के लिये बैठते देख कर बहुत ख़ुशी होती है।

"मैं शाकाहारी हूं। मुझे खाने में ऐसी कोई ख़ास चीज़ पसंद नहीं है। मुझे बस सादा खाना पसंद है," शर्मीला ने कहा, जिनका अंग्रेज़ों के समय में लागू किये गये आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स ऐक्ट के ख़िलाफ़ विद्रोह अद्वितीय और बेमिसाल रहा है।

AFSPA अशांत क्षेत्रों में लागू किया जाता है, जो सशस्त्र सैनिकों को गिरफ़्तारी और बिना वारंट के तलाशी जैसे विशेष शक्तियाँ देता है।

उन्हें एक अस्पताल में गिरफ़्तार रखा गया था, जहाँ उनकी नाक से पेट में लगी पाइप से उन्हें खाना खिलाया जाता था, आज शर्मीला शांति से थोड़ा-थोड़ा खा रही हैं।

खाना खाने के बाद वो अपनी प्लेट धोने लग जाती हैं, और उनके पति, भारतीय मूल के एक ब्रिटिश राष्ट्रीय, डेसमंड कुटिनियो अपना खाना ख़त्म करते हैं।

"हम काफ़ी अलग हैं। मैं शाकाहारी हूं, जबकि उन्हें चिकन, आइस क्रीम, चॉकलेट खाना पसंद है," उन्होंने हँसते हुए कहा।

फोटो: 2016 में 16 वर्षों के बाद शर्मीला ने AFSPA के लागू किये जाने के ख़िलाफ़ अपनी भूख हड़ताल समाप्त की। शर्मीला खुद के लिए सादा दक्षिण भारतीय खाना परोसती हुईं।

यह जोड़ा खाना खाने के लिये अपने फ़्लैट से पैदल चलकर सँकरी सड़क के किनारे फैली विस्तार नामक एक शांत, हरी-भरी ख़ूबसूरत जगह पर आया था। चिड़ियों के चहचहाने की आवाज़ से गुंजायमान यह जगह बेंगलुरु के आउटस्कर्ट्स की गर्म दोपहर में ठंडक से भरी है।

"मुझे पक्षियों का चहचहाना बेहद पसंद है। यहाँ का शांत वातावरण मुझे अच्छा लगता है," शर्मीला ने धीरे से, रुक-रुक कर कहा। उन्होंने पारंपरिक मणिपुरी रैप-अराउंड स्कर्ट पहनी है, और उनका चेहरा उनके घुंघराले बालों के बीच झलक रहा है।

"वो देखने में दुबली-पतली और नाज़ुक लगती हैं, लेकिन उनके भीतर की असाधारण शक्ति ने आज उन्हें सहनशीलता की एक शक्तिशाली मिसाल बना दिया है। अपने परिवार और गाँव वालों की इच्छा के ख़िलाफ़ अपनी भूख हड़ताल तोड़ने के बाद उन्होंने मणिपुर विधानसभा से चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा।

उन्होंने डेसमंड के साथ मणिपुर छोड़ दिया, जिन्हें उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी के दौरान लिखे पत्रों और किताबों के बीच अपना दिल दे दिया था।

"मुझे उसके बारे में बेंगलुरु के एक अखबार में लिखी उसकी एक संक्षिप्त जीवनी से पता चला," डेसमंड ने कहा। वो हर सप्ताह उन्हें चिठ्ठियाँ और किताबें भेजा करते थे -- शर्मीला को उनके द्वारा भेजी गयी ऐन फ्रैंक की जीवनी ख़ास तौर पर पसंद आई।

"मुझे उससे लगभग 300 किताबें मिली हैं," उन्होंने बताया। मैंने उनमें से कुछ किताबें सेंट्रल लाइब्ररी और कुछ सेंट्रल जेल को दान कर दीं।

"उसकी लिखी चिठ्ठियों को मैं अपनी बहन के घर पर एक प्लास्टिक बैग में रखती थी।"

फोटो: पति डेसमंड कुटिनियो के साथ। एक-दूसरे को चिठ्ठियाँ और किताबें भेजने वाले इस जोड़े को एक-दूसरे से प्यार हो गया।

यह जोड़ा मणिपुर में शर्मीला के घर से काफ़ी दूर, कोडाइकनाल के हिल स्टेशन पर बस गया। उन्होंने 2017 में शादी की। इस शादी में उनके परिवार से कोई भी शामिल नहीं हुआ।

"कोडाई पहाड़ी जगह थी। वहाँ चीज़ें बेंगलुरु से महँगी थीं। एयरपोर्ट से सफ़र में तीन घंटे लग जाते थे। वहाँ ठंड बहुत थी और हमेशा कोहरा रहता था। लेकिन जगह बेहद ख़ूबसूरत थी," शर्मीला ने बताया।

इस दौरान उन्हें दिल्ली, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, तमिल नाडु, केरल विश्व विद्यालयों में लेक्चर देने के लिये आमंत्रित किया गया।

"मैं युवाओं को AFSPA की निष्ठुरता के बारे में बताती हूं और उन्हें समझाती हूं कि एक लोकतांत्रिक देश में ब्रिटिश लोगों द्वारा बनाये गये इस बेरहम कानून को लागू रखना कितने शर्म की बात है।"

"AFSPA लागू होने के बाद से विद्रोह ख़त्म होने की जगह अलगाववादी आंदोलन और बढ़ते जा रहे हैं।"

फोटो: शर्मीला अपना समय पढ़ते हुए बिताती हैं और कश्मीर के एक अनाथालय में काम करना चाहती हैं।

मणिपुर 61 वर्षों से AFSPA के अधीन है।

इनमें से 16 सालों तक इरोम शर्मीला ने इस कानून को हटाने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने 28 वर्ष की उम्र में भूख हड़ताल शुरू की; इसे ख़त्म करने पर उनकी उम्र 44 साल की थी।

मणिपुर छोड़ने के बाद से वो कभी मणिपुर वापस नहीं आई हैं।

"मैं बस अपने मन से उस तरह के लगाव को मिटाना चाहती हूं। मणिपुर के लोग मुझसे ख़ुश नहीं थे, क्योंकि मैंने हड़ताल बंद कर दी," उन्होंने दूसरी ओर देखते हुए कहा।

"मुझे कोई अफ़सोस या पछतावा नहीं है। मुझे लगता है यही ज़िंदग़ी है। मैं अभी भी उस अधूरे लक्ष्य को हासिल करना चाहती हूं।"

फोटो: उन्होंने पिछले ही महीने जुड़वाँ बच्चियों को जन्म दिया, जिनका नाम उन्होंने सखी और तारा रखा है।

पिछले साल, शर्मीला के जुड़वाँ बच्चों के साथ गर्भवती होने पर शर्मीला और डेसमंड बेहतर चिकित्सा सेवा के लिये कोडाइकनाल से बेंगलुरु आ गये।

मई 13 को, मदर्स डे (मातृ दिवस) पर उन्होंने जुड़वाँ बेटियों को जन्म दिया।

शर्मीला की माँ के नाम पर आधारित निक्स सखी और ऑटम तारा नाम पाने वाली ये बेटियाँ शर्मीला के जीवन में एक नयी शुरुआत लेकर आई हैं।

जब उनके प्रसव से एक महीने पहले हम मिले थे, तब पति-पत्नी ने बताया था कि उनकी बच्चियों के थोड़े बड़े हो जाने पर दोनों कश्मीर जाकर शांति केंद्र अनाथालय में काम करना चाहते हैं।

"कश्मीर के लोगों की तकलीफ़ मणिपुर से भी कहीं ज़्यादा बड़ी है," शर्मीला ने कहा।

"अगर भगवान ने चाहा, तो मैं अंजान जगहों की यात्रा करना और अंजान लोगों से जुड़ना चाहूंगी और लोकतंत्र से जुड़े मेरे विचार तथा आज के सिस्टम के खोखलेपन के बारे में उन्हें बताना चाहूंगी।"

अर्चना मसीह
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