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'ज़ायरा वसीम की घटना इस्लाम को पीछे ले जा रही है'
By सैयद फिरदौस अशरफ़
July 05, 2019 10:05 IST

'ज़ायरा को इसमें इस्लाम को घसीटने की क्या ज़रूरत है?'

'हम एक धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र में रहते हैं और उसे अपने फ़ैसले लेने का हक़ है, लेकिन उसमें इस्लाम को घसीटने का क्या मतलब है?'

फोटो: सीक्रेट सुपरस्टार  और दंगल  की अभिनेत्री ज़ायरा वसीम। फोटोग्राफ: PTI फोटो

पिछले सप्ताह जब बसीरहाट से ऑल इंडिया तृणमूल काँग्रेस सांसद नुसरत जहाँ बिंदी, सिंदूर और मंगलसूत्र के साथ संसद भवन में आयीं, तो यह बंगाल में एक तीखे विवाद का मुद्दा बन गया।

जन्म से मुसलमान, नुसरत ने पिछले महीने अपने प्रेमी निखिल से शादी कर ली और उन्हें मुस्लिम मौलवियों से कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा, जिनका कहना है कि बिंदी, सिंदूर और मंगलसूत्र पहन कर उन्होंने इस्लाम का त्याग कर दिया है और अब वह मुसलमान नहीं हैं।

नुसरत ने इसके जवाब में कहा कि वह एक 'सर्वसमावेशी भारत की प्रतिनिधि हैं... जिसमें जाति, संप्रदाय और धर्म की कोई बेड़ियाँ नहीं हैं। मैं अभी भी मुसलमान हूं और किसी को भी मेरे पहनावे पर टिप्पणी करने का कोई हक़ नहीं है... धर्म का पहनावे से कोई संबंध नहीं है।'

यह विवाद अभी ख़त्म भी नहीं हुआ था कि दूसरा शुरू हो गया, जब दंगल की अभिनेत्री ज़ायरा वसीम ने घोषणा की कि उन्होंने फिल्में छोड़ दी हैं - और इसके पीछे के कारण ने एक नये विवाद को जन्म दिया।

ज़ायरा ने अपने इंस्टाग्राम पोस्ट में कहा कि वह फिल्में छोड़ रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि फिल्मों में काम करके वह इस्लाम के नियमों को तोड़ रही हैं।

दोनों तरह की सोच रखने वाले लोगों के बीच जंग छिड़ गयी है और यह विवाद कुछ समय तक ठंडा नहीं पड़ेगा।

लेकिन सवाल तो फिर भी उठेंगे।

क्या इस्लाम में ग़ैर-मुसलमानों के साथ विवाह की अनुमति नहीं है?

क्या दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म महिलाओं को मनोरंजन, कला और संस्कृति के क्षेत्र में शामिल होने से रोकता है?

''मैं ज़ायरा वसीम के निजी फैसले का सम्मान करती हूं, और नुसरत जहाँ के भी। हम भारत में रहते हैं, सऊदी अरेबिया में नहीं,'' एक जानी-मानी इस्लामिक स्कॉलर ज़ीनत शौक़त अली ने रिडिफ़.कॉम के सैयद फिरदौस अशरफ़ को बताया।

ट्यूनिशिया जैसे एक मुस्लिम देश में मुसलमान महिला ग़ैर-मुसलमान से शादी कर सकती है। क्या ऐसे और भी मुस्लिम देश हैं, जहाँ इसकी अनुमति है?

मुझे नहीं लगता कि ट्यूनिशिया जैसे और भी मुस्लिम देश हैं, जहाँ मुसलमान महिलाओं को ग़ैर-मुसलमान मर्दों से शादी करने की अनुमति है, लेकिन अगर तुर्की की बात करें, तो धर्म-निरपेक्ष कानून से शादी करने पर, मुस्लिम महिलाऍं ग़ैर-मुस्लिम से शादी कर सकती हैं।

अमेरिका जैसे बहु-सांस्कृतिक देश में वे नागरिक कानून के अंतर्गत शादी कर सकती हैं।

तो ऐसे कुछ कानून ज़रूर हैं, जो आपको ग़ैर-मुसलमान से शादी करने की अनुमति देते हैं, लेकिन मुस्लिम देशों में ये कानून मुस्लिम महिलाओं पर लागू नहीं होते।

मलेशिया जैसे देशों में, दोनों पक्ष तैयार होने और धर्म की ओर से अनुमति होने पर मर्द ऐसा कर सकते हैं। लेकिन ज़्यादातर मुस्लिम देशों में महिलाओं को ग़ैर-मुसलमानों से शादी करने की अनुमति नहीं है।

भारत में 1954 के स्पेशल मैरेज ऐक्ट (विशेष विवाह अधिनियम) के तहत मुसलमान महिलाऍं ग़ैर-मुसलमानों से शादी कर सकती हैं और पति-पत्नी अपने-अपने धर्मों का पालन कर सकते हैं।

नागरिक कानून के अंतर्गत आपको एक महीने की सूचना देनी पड़ती है, जिसके दौरान रेजिस्ट्रार आपके दस्तावेज़ तैयार करते हैं और फिर आपकी शादी करवाते हैं।

लेकिन मैं आपको बताना चाहूंगी कि मुसलमान और हिंदू के बीच शादी होने पर कई उलझनें पैदा की जाती हैं और कई बार संस्थाएँ अड़चनें खड़ी करने की पूरी कोशिश करती हैं, लेकिन भारत का संविधान इसकी इजाज़त ज़रूर देता है।

शरिया कानून या इस्लामिक कानून क्या कहता है? क्या यह सही है कि शरिया के अनुसार मुसलमान महिला ग़ैर-मुसलमान से शादी नहीं कर सकती?

शरिया शब्द को लेकर बहुत सारी ग़लतफहमियाँ हैं। शरिया का मतलब है 'तरीका'। इसे बहते पानी के रूप में देखा जाता है, ठहरे पानी के रूप में नहीं।

शरिया बदलता है। क़ुरान पाक़ की बात कीजिये, जो अल्लाह की कही बात है और इस्लाम का मुख्य स्रोत है।

शादी एक बंधन है, जिसे मर्द और औरत के बीच जनन के लिये बांधा जाता है, और इसलिये यह बंधन मायने रखता है।

यह आपके वंश, संतानोत्पत्ति से संबंध रखता है और इसीलिये शादी की जाती है।

जहाँ तक दूसरे समुदाय के लोगों से शादी करने की बात है, क़ुरान की आयत 5.5 में कहा गया कि आप किताब के लोगों में से धर्मपरायण महिलाओं, अच्छी महिलाओं, पवित्र महिलाओं से शादी कर सकते हैं। मैं पूरी आयत नहीं बता रही (बाहरी लिंक)।

किताब के लोगों की बात करें, तो ईसाई और यहूदी लोग किताब के लोग कहे जाते थे, क्योंकि उस क्षेत्र में इन्हीं धर्मों का पालन किया जाता था।

और अब उनका (मुसलमानों का) कहना है कि एक भगवान को मानने वाली महिलाओं से शादी करो। लेकिन ईसाई लोग तो ट्रीनिटी (त्रिदेव) में विश्वास करते हैं। और इस्लाम के अनुसार यह शिर्क (मूर्ति पूजा या बहुदेववाद) में आता है, लेकिन ईसाइयों को कभी मुशिर्क नहीं कहा गया है।

इसके बाद सवाल उठा: किताब के लोगों में सिर्फ यहूदी और ईसाइयों को क्यों गिना जाता है?

बौद्ध, सिख या हिंदू क्यों नहीं?

हिंदुओं की भी अपनी किताब है। क़ुरान पाक़ ने भी कहा है कि अल्लाह ने हर देश को एक किताब दी है और दुनिया के हर कोने में किताब देने के साथ-साथ अल्लाह ने दुनिया के हर कोने में एक पैगंबर भेजा है।

जब अल्लाह ने दुनिया के हर कोने में किताब और पैगंबर भेजे हैं, तो फिर हिंदू किताब के लोग कैसे नहीं हुए?

पारसियों की भी अपनी किताब है। सामने आई किताब उपनिषद भी हो सकती है और अपने भाई, शहंशाह औरंगज़ेब के अत्याचार झेलते समय दारा शिकोह ने भी यही बात कही थी।

लेकिन किताब के लोगों से शादी करने की इजाज़त सिर्फ मुसलमान मर्दों को है या महिलाओं को भी?

मर्दों से कहा गया है कि तुम किताब के लोगों से शादी कर सकते हो। लड़कियों का इसमें ज़िक्र नहीं है।

तो कुछ दकियानूसी लोगों का कहना है कि लड़कियों का ज़िक्र न होने का मतलब है कि मुसलमान लड़कियाँ ग़ैर-मुसलमान मर्द से शादी नहीं कर सकतीं।

ये लोग फ़क़िहों के समूह का एक हिस्सा थे, जिनकी सोच क़ुरान पाक़ के मूल सिद्धांत के ख़िलाफ़ जाती है, जिसमें कहा गया है कि हर उस चीज़ की इजाज़त है, जिसकी इजाज़त न होने का साफ़ ज़िक्र क़ुरान पाक़ में न हो।

आप हर चीज़ कर सकते हैं, जिसके बारे में लिखा न गया हो कि आप नहीं कर सकते। जैसे यह बात लिखी हुई है कि मुसलमान सूअर का मांस नहीं खा सकते।

किसी बात का ज़िक्र न हो, तो आप नहीं कह सकते है उस बात की इजाज़त नहीं है, लेकिन मुफ़्तियों ने इस बात को अनदेखा कर दिया और कहा कि जो लिखा गया है सिर्फ उसी की इजाज़त है, लेकिन यह सिद्धांत के ख़िलाफ़ है।

मुफ़्तियों ने लड़कियों के बारे में यह नज़रिया बनाया क्योंकि शादी के लिये लड़कियों का ज़िक्र नहीं किया गया था, लेकिन क़ुरान पाक़ भेदभाव नहीं करता, इसके अनुसार क़ुरान पाक़ की आयत 5.5 में लड़कियाँ भी शामिल थीं।

इस सोच को दुनिया के सामने रखने पर आपको मुसलमान मुफ़्तियों से किस प्रकार की प्रतिक्रिया मिलती है?

ऐसा मैं नहीं कह रही, क़ुरान पाक़ कह रहा है। मुफ़्तियों के बीच भी अलग-अलग नज़रिये हैं। हनाफ़ी मुफ़्तियों का सोचने का तरीका अलग है, और मालिकी मुफ़्तियों का अलग।

जब भारतीय मुसलमानों के लिये 1939 में मुस्लिम कानून बनाया गया था, तब हनाफ़ी कानून के अनुसार कई चीज़ों पर रोक लगी थी, इसलिये भारत में मुसलमानों के लिये कानून बनाते समय हमने मालिकी और हनबली शिक्षाओं को अपनाया।

इसे तक़हुर का सिद्धांत कहा जाता है, आप सुन्नियों की अलग-अलग तालीमें देख सकते हैं और अभी भी यह कानून बना सकते हैं।

लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि इसके बारे में बात करने के लिये ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग मौजूद नहीं हैं। जैसे मद्रसे आपकी तालीम के लिये होते हैं, लेकिन मद्रसों में आजकल वही सिखाया जाता है, जो उन्हें लगता है कि आपको सीखना चाहिये।

जबकि क़ुरान पाक़ एक बहुत ही बड़ी, ख़ुले दिल से लिखी गयी, लोगों को अपनाने वाली और लोगों को शामिल करने वाली किताब है। अफ़सोस की बात है कि इससे ग़लत तरीके से समझाये जाने के कारण, हमने क़ुरान पाक़ को कुछ लोगों तक सीमित कर दिया है।

कहा जाता है कि पैगंबर मुहम्मद रहमतुल अल अमीन हैं। वो सब के लिये आये थे, सिर्फ मुसलमानों के लिये नहीं, तो फिर आप इन चीज़ों को नकार कैसे सकते हैं?

क्या आप ऐसे मुसलमान मुफ़्तियों के नाम बता सकती हैं, जिन्होंने कहा है कि ग़ैर-मुस्लिम मर्द मुस्लिम औरतों से शादी कर सकते हैं?

ऐसे एक जाने-माने मुफ़्ती हैं ख़ालिद अबू अल फ़दल। उनका कहना है कि मुसलमान महिलाओं के ग़ैर-मुसलमान मर्द से शादी करने पर कोई स्पष्ट रोक नहीं है।

और इस बात का ज़िक्र क़ुरान पाक़ में न होने के कारण, उन्होंने बताया है कि मुसलमान महिलाओं पर ग़ैर-मुसलमानों से शादी की रोक कहीं लिखी हुई नहीं है, और यह सोच धीरे-धीरे उभरी है।

इस बात पर कहीं भी साफ़ 'ना' नहीं कहा गया है, लेकिन इसका ज़िक्र न होने के कारण इस तरह के अर्थों को और जगहों से निकाला गया है, क़ुरान पाक़ से नहीं।

कई बार आप मुसलमान लड़की से शादी करते हैं और फिर उस पर आपका धर्म अपनाने के लिये ज़ोर डालते हैं, ऐसा नहीं होना चाहिये।

मुसलमान लड़कियों द्वारा दूसरा धर्म अपनाना एक समस्या है, नहीं तो इस तरह की शादी पर कोई रोक नहीं होगी।

एक और ऐसे इस्लामिक विद्वान हैं इमाम ख़लील मुहम्मद। उन्होंने कड़े शब्दों में कहा है कि मुसलमान लड़कियाँ धर्म से बाहर शादी कर सकती हैं, बशर्ते कि उन पर धर्म बदलने के लिये दबाव न डाला जाये।

इसका कारण यह है कि शादी में ऐसी एक शर्त होनी चाहिये कि मुसलमान लड़की पर धर्म बदलने के लिये दबाव नहीं डाला जायेगा और बच्चों को सही उम्र होने पर अपना मनचाहा धर्म अपनाने की आज़ादी होगी।

यानि कि मर्द का धर्म उसकी मुसलमान पत्नी या बच्चे पर थोपा नहीं जाना चाहिये।

मुसलमान महिलाओं की ग़ैर-मुसलमानों से शादी पर बात करने वाले और भी मुफ़्ती हैं, जैसे आसमा लैम्ब्रेट और अल अजामी।

और स्वर्गीय हसन तुराबी ने भी कहा है कि क़ुरान पाक़ में एक भी ऐसा शब्द नहीं है जो मुसलमान लड़की को धर्म के बाहर शादी करने से रोकता हो।

मोइज़ अहमद ने भी ग़ैर-मुसलमान मर्द के मुसलमान लड़की से शादी करने पर अपना विचार पेश किया है और बताया है कि शादी का फ़ैसला मुसलमान लड़की पर छोड़ देना चाहिये।

ताज हार्गी और ओसामा हसन ने भी लगभग यही बात कही है, कि शादी का फ़ैसला मुसलमान लड़की का होना चाहिये।

मुसलमान लड़कियों के ग़ैर-मुसलमान लड़कों से शादी करने पर इन मुद्दों पर विवाद क्यों नहीं होता?

जाहिलिया (अज्ञानता)

क़ुरान पाक़ तालीम को बढ़ावा देता है। इस्लाम रूढ़िवादी नहीं है, अफ़सोस की बात है कि मुसलमानों ने इसे रूढ़िवादी बना दिया है।

इस्लाम को कारण बताते हुए ज़ायरा वसीम के मूवीज़ छोड़ने के फैसले पर आप क्या कहेंगी?

उसका कदम बहुत ही पिछड़ा हुआ है। ज़ायरा वसीम को मूवीज़ छोड़ने के फैसले में इस्लाम को नहीं घसीटना चाहिये था।

अगर मुझे कोई प्रोफेसर या टीवी ऐंकर नहीं बनना हो, तो मैं उसमें अपने धर्म को क्यों घसीटूंगी?

वह समझदार लड़की है, और शायद उसे बहकाया गया है।

भारत में कई मुस्लिम अदाकाराऍं रह चुकी हैं। जैसे वहीदा रहमान, जिन्होंने कहा था कि वो कभी स्लीवलेस नहीं पहनेंगी और उन्होंने कभी अपनी फिल्मों में स्लीवलेस नहीं पहना।

ज़ायरा वसीम की यह पूरी घटना इस्लाम को पीछे ले जा रही है।

उसे इसमें इस्लाम को घसीटने की क्या ज़रूरत है? हम एक धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र में रहते हैं और उसे अपने फैसले लेने का हक़ है, लेकिन उसमें इस्लाम को घसीटने का क्या मतलब है?

मैं ज़ायरा वसीम के निजी फैसले का सम्मान करती हूं, और नुसरत जहाँ के भी।

हम भारत में रहते हैं, सऊदी अरेबिया में नहीं

क़ुरान पाक़ में ऐसा कहाँ कहा गया है कि आप सिंदूर या मंगलसूत्र नहीं पहन सकते?

बेक़ार की बातों को बहस का मुद्दा बना देना हमारी आदत बन चुकी है।

क्या यह सच है कि मनोरंजन ग़ैर-इस्लामिक है?

मैं ऐसा नहीं सोचती। जब पैग़ंबर मुहम्मद (सलामत रहें) को मदीना लाया गया था, तो शहर की महिलाएँ गा रही थीं और लोकनृत्य कर रही थीं।

यह स्वागत नृत्य था, जो आदिवासी लोग किया करते हैं। यह ऐतिहासिक है और यह सऊदी अरेबिया का लोकनृत्य है।

क्या ज़ायरा वसीम की इस घोषणा से रूढ़िवादी मुसलमानों को बढ़ावा मिलेगा?

बिल्कुल, उन्हें इसका फ़ायदा मिलेगा। वो अपने विचार लेकर सामने आयेंगे और अफ़सोस की बात है कि उनके विचारों को काटने वाले ज़्यादा जानकार मुसलमान नहीं हैं।

हमें इन बातों को काटने वाले जानकारों का एक संगठन बनाना चाहिये।

क्या एक साथ एक ही समय पर हम धर्मपरायण मुसलमान और आधुनिक इंसान बन सकते हैं?

बिल्कुल बन सकते हैं।

आधुनिक इंसान एक अच्छा मुसलमान होता है। अच्छा मुसलमान क्या है? अच्छा मुसलमान होने का मतलब है दिल से नेक होना, समावेशी होना और दूसरे धर्म के लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करना।

यानि कि आप अरकन ए इस्लाम (इस्लाम की पाँच आधारशिलाऍं) का पालन करते हैं और वही आपको अल्लाह से जोड़ता है।

इस्लाम में इबादत (भक्ति) और ग़ैर-मुसलमानों से मुआमलात (व्यवहार) और उनसे बातचीत, उन्हें अपनाने और उनकी ओर नेकदिली दिखाने का ज़िक्र है।

और पैग़ंबर मुहम्मद (सलामत रहें) पूरी मानवजाति के लिये आये थे।

पैग़ंबर की एक बहुत ही जानी-मानी हडित है, जिसमें उन्होंने पूरी मानवजाति से प्यार करने की बात कही है, और यही बात हिंदुओं ने वसुधैव कुटुंबकम (विश्व एक परिवार है) में कही है।

ईसाई भी कहते हैं 'लव दाय नेबर' -- लेकिन क्या हम इन चीज़ों को मानते हैं?

क्या अन्य धर्मों के मुकाबले इस्लाम अपने मानने वालों पर ज़्यादा सख़्त नियंत्रण रखता है?

इस्लाम नहीं, लेकिन इस्लाम के फ़क़िह ऐसा करते हैं।

अपने धर्म का पालन करना और छोटी सोच वाले लोगों की बातों को मान लेना दो अलग चीज़ें हैं। सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप चाहते क्या हैं।

आप क़ुरान पाक़ उठायें और ख़ुद पढ़ें, आप ऐसा क्यों नहीं करते?

लेकिन लोग सोचते हैं कि मुसलमान अपने धर्म को लेकर कट्टर सोच रखते हैं, जैसा कि ज़ायरा वसीम के मामले में साबित हुआ।

ऐसा इसलिये, क्योंक़ि मुसलमान आज भी पुराने ज़माने में जी रहे हैं। मुझे ऐसा कहने में बुरा लगता है, और ऐसा होना नहीं चाहिये।

पैग़ंबर मुहम्मद (सलामत रहें) ने आपको बोलने, लिखने, सोचने, बनाने और खोज करने की आज़ादी दी है, तो हमारे मुसलमान वैज्ञानिक कहाँ हैं? मुसलमान दार्शनिक कहाँ हैं?

आप (मुस्लिम रूढ़िवादी) इस्लाम के 200 सालों में ये सब भूल गये और कहने लगे इस्लाम आपको ये और वो करने की इजाज़त नहीं देता।

क़ुरान पाक़ में 805 आयतें तालीम और उससे जुड़ी बातों पर हैं। इसमें कहा गया है कि हमेशा ज्ञान के पीछे लगे रहो, भले ही ज्ञान चीन में क्यों न मिले। उस समय क़ुरान पाक़ की तालीम चीन में नहीं दी जाती थी। यानि कि यह ज्ञान धर्म निरपेक्ष था।

इस्लाम ने आपको दीन (धर्म) और दुनिया के बारे में सिखाया है, तो आप उन चीज़ों का पालन क्यों नहीं करते?

मुसलमान लोगों को अब आगे बढ़ना चाहिये और क़ुरान पाक़ में कही गयी बातों को मानना चाहिये, न कि बने-बनाये और ख़ुद सोचे गये अर्थों को।

सैयद फिरदौस अशरफ़
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