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'मुसलमानों को उदार बनना होगा'

October 22, 2019 12:11 IST
By अर्चना मसीह

'अगर बेहतर समझदारी बने, तो मुसलमानों को सरकार को  अयोध्या में विवादित भूमि की वापसी की पेशकश करनी चाहिए।'

फोटो: आयोध्या में एक मंदिर के पास माला जपते साधु। फोटोग्राफ: अरुण शर्मा/PTI फोटो

लेफ़्टिनेंट जनरल ज़मीर उद्दीन शाह, PVSM, SM, VSM जो आर्मी कर्मचारियों के डेप्युटी चीफ़ के पद पर रिटायर हुए हैं और अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के वाइस-चांसलर हैं, मानते हैं कि सामुदायिक शांति के हित को ध्यान में रखते हुए उदारता की दृष्टि से मुसलमानों को अयोध्या की विवादित ज़मीन सरकार को लौटा देनी चाहिये।

"यह मैत्रीपूर्ण समाधान की ओर हमारी अंतिम कोशिश होगी," जनरल ने रिडिफ़.कॉम की अर्चना मसीह से कहा।

आपका समूह 'मुस्लिम्स फोर पीस' क्यों मानता है कि मसलमानों को अयोध्या की ज़मीन पर अपना दावा छोड़कर उसे हिंदुओं के हवाले कर देना चाहिये?

मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि हम इसे राज्य सरकार को वापस करने की बात कर रहे हैं। वे जिसे चाहें उसे यह ज़मीन दे सकते हैं।

एक फ़रमान है कि कोई भी ऐसी जगह उसके मालिक को लौटाई जा सकती है, जहाँ बहुत सालों से प्रार्थना न की गयी हो।

उस ज़माने में इसके मालिक वाक़िफ़ यानि कि मुग़ल सल्तनत के शहंशाह थे, और अब भारत सरकार है। हम इस ज़मीन को वाक़िफ़, यानि कि इसके मालिक को लौटाने की बात कर रहे हैं।

सुन्नी वक्फ़ बोर्ड हमारे साथ है, क्योंकि वही इस ज़मीन के संरक्षक हैं।

कोर्ट के फ़ैसले में एक की जीत होगी और एक की हार।

सबसे पहली बात, हम हाइ कोर्ट के फ़ैसले की तरह कोई पंचायती समाधान नहीं चाहते -- इस फ़ैसले में अयोध्या की 1/3 ज़मीन हिंदुओं को और 2/3 मुसलमानों को दी गयी थी।

भारत के मौजूदा हालातों में ऐसा फ़ैसला असरदार नहीं होगा।

फ़ैसला साफ़ होना चाहिये।

फ़ैसला हमारे ख़िलाफ़ जाने पर हम सब कुछ खो देंगे और अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक समुदाय के बीच संबंध जोड़ने का मौका भी हाथ से चला जायेगा।

अगर हम जीत भी गये, तो भी हार जायेंगे, क्योंकि वहाँ मस्जिद बनवाना संभव नहीं होगा।

हम जानते हैं कि हम मस्जिद दुबारा नहीं बनवा पायेंगे, तो फिर जीतने का फ़ायदा क्या है?

इसलिये हमारा कहना है कि एक आखिरी कोशिश की जानी चाहिये। सुप्रीम कोर्ट ने भी समझौते को जारी रखने और एक मैत्रीपूर्ण समाधान ढूंढने की बात कही है।

यह हमारी ओर से मैत्रीपूर्ण समाधान की ओर आखिरी कोशिश होगी।

बहुत लोगों ने हमारा समर्थन किया है और बहुत से लोग ख़ामोश हैं।

मैं जानता हूं कि मन ही मन वह भी समझते हैं कि यही एकमात्र समाधान है।

ज़फ़रयाब जिलानी (सचिव, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड) कहते हैं कि आपके ग्रुप का इस मामले में कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, क्योंकि आप मुसलमानों की भावनाऍं नहीं समझते।

एक तरह से उनका कहना सही है। हमारा लक्ष्य है भारत के नागरिकों का ध्यान इस ओर खींचना कि एक मित्रतापूर्ण समाधान संभव है।

मुझे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर पूरा विश्वास है और मैं एडवोकेट जिलानी तथा बोर्ड के सभी सदस्यों का सम्मान करता हूं।

उनकी अपनी योजना है, लेकिन हम अधिकांश भारतीय जनता को मनाना चाह रहे हैं कि आगे जाकर किसी की हार नहीं होनी चाहिये और समझौता ही सबसे अच्छा समाधान है।

फोटो: 16वीं सदी का बाबरी मस्जिद दिसंबर 6, 1992 को कर सेवकों द्वारा तोड़ दिया गया।

AIMPLB का कहना है कि वे अदालत का फ़ैसला ही मानेंगे।

बिल्कुल, लेकिन जैसा कि मैंने कहा, फैसला किसी के भी पक्ष में हो, हार अल्पसंख्यक समुदाय की ही होगी।

अगर हम केस हार जायें, तो हम केस के साथ-साथ बहुसंख्यकों को जीतने का रास्ता भी खो देंगे।

अगर हम जीतेंगे, तो क्या हम ज़मीन पर कुछ काम कर पायेंगे?

अगर मुसलमानों ने मस्जिद बनाने की कोशिश की, तो दंगे और मार-काट की शुरुआत हो जायेगी। 1992 दुहराया जायेगा।

ख़ुद सैनिक होने के नाते, मैं जानता हूं कि मुश्किल घड़ियों में सैनिक हार नहीं मानते।

वास्तव में सेना में मेरे कार्यकाल के दौरान कई बार ऐसा हुआ है कि आपको लगता है आप हार रहे हैं, लेकिन आप कोई चौंकाने वाली हरकत करते हैं जो आपका साथ देती है।

इस बड़े क़दम के बदले में मुसलमान समुदाय किन बातों की गारंटी मांगेगा?

यही कि बाबरी मस्जिद तोड़ने जैसी घटना भविष्य में दुबारा कभी न हो।

दूसरी बात, हम धर्मस्थल अधिनियम, 1991 को ज़्यादा मज़बूत करना चाहते हैं। मौजूदा कानून किसी भी गतिविधि को रोक नहीं पाता। कानून इतना मज़बूत होना चाहिये कि दुबारा कोई भी ऐसा क़दम उठाने की कोशिश न करे।

एक आपराधिक गतिविधि में मस्जिद को तोड़े जाने के बाद ज़मीन का अधिकार छोड़ देने का आग्रह करके क्या आप मुसलमानों से बहुत ज़्यादा उदारता की उम्मीद नहीं कर रहे, ख़ास तौर पर अगर पिछले कुछ वर्षों में फैली बहुसंख्यक समर्थक सोच को देखा जाये तो?

बिल्कुल, अगर मुसलमान शांति और अमन चाहते हैं तो उन्हें उदार बनना ही पड़ेगा।

हमारे द्वारा लगाई गयी शर्तों को स्वीकार किया जाना चाहिये -- कि आगे जाकर इस तरह की कोई मांग नहीं की जानी चाहिये।

अगर आप अपराधियों को किसी तरह की सज़ा मिलने की उम्मीद में हैं, तो आप ग़लत सोच रहे हैं। उन्हें सिर्फ एक दिन की जेल और रु. 2,000 का जुर्माना होगा, जो कि हास्यास्पद है।

तो उस पर ज़ोर लगाने का कोई फ़ायदा नहीं है, क्योंकि यह चीज़ हो नहीं सकती। सज़ा लोगों को बांधने के लिये होनी चाहिये, जबकि यहाँ तो दोषी को गवर्नर बना दिया गया।

(1992 में जब बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया था, तब कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफ़नामा जमा किया था कि उनकी सरकार मस्जिद को किसी तरह का नुकसान नहीं होने देगी, लेकिन दिसंबर 6, 1992 को कर सेवकों ने इस मस्जिद को तोड़ दिया। उन्होंने मुख्य मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया और केंद्र की काँग्रेस सरकार ने उनकी सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया। उन्हें 2014 में राजस्थान का राज्यपाल बना दिया गया।)

फोटो: जनरल शाह अबू धाबी के राजकुमार, प्रिंस मुहम्मद बिन ज़ायेद अल नाह्यान और प्रधान मंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के साथ। फोटोग्राफ: लेफ़्टिनेंट जनरल शाह के वृत्तांत, द सरकारी मुसलमान के सौजन्य से

क्या मुसलमानों को लगता है कि ज़मीन वापस देने से उन्हें न्याय मिल सकता है? इसपर मुसलमानों की क्या भावना होगी? क्या उन्हें ठेस नहीं पहुंचेगी?

मुसलमान दुःखी हैं, लेकिन अब आगे बढ़ने का समय आ गया है।

हमें बहुसंख्यक समुदाय को जीतना है और कट्टरपंथ को छोड़ना है, जो कि आजकल बड़े पैमाने पर फैल रहा है।

यह मस्जिद गिराने के समय से शुरू हुआ। अगर उसी समय मुसलमान समाज ने दूरदृष्टि रखी होती और उसी राह पर चलते, जो हम आज सुझा रहे हैं, तो शायद मस्जिद का हर पत्थर जोड़ कर कहीं और मस्जिद बनवा दिया गया होता।

प्रस्ताव यही था, लेकिन हमने इसे स्वीकार नहीं किया।

अल्पसंख्यकों को उदारता दिखानी होगी। मैं जानता हूं कि इस मुश्किल दौर में ऐसा करना मुश्किल है, लेकिन उदारता को सबसे ऊपर रखते हुए ज़मीन वाक़िफ़ -- यानि कि भारत सरकार को लौटा दी जानी चाहिये। ज़मीन के संरक्षक, सुन्नी वक्फ़ हमारे साथ हैं।

मुझे मेरे ही समुदाय से बुरा-भला सुनना पड़ेगा, लेकिन इस चीज़ को अब मैंने स्वीकार कर लिया है।

जब मैं अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी का वाइस चांसलर था, तब भी मुझे मेरे ही समुदाय से तिरस्कार झेलना पड़ता था, लेकिन युनिवर्सिटी को टाइम्स हायर एड्युकेशन लंदन और यूएस वर्ल्ड और न्यूज़ रिपोर्ट  द्वारा भारत की सर्वश्रेष्ठ युनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया है।

इतिहास गवाही देगा कि हम सही थे।

इस तरह का क़दम किस प्रकार भारत में मुसलमानों की स्थिति बदल सकता है?

भारत के मुसलमानों की स्थिति तब तक नहीं बदलेगी, जब तक हम सर सैयद अहमद ख़ान की कही हुई बात पर न चलें -- भविष्य सिर्फ शिक्षा से ही बदल सकता है।

अगर आप शिक्षित हैं तो आप भेद-भाव की दीवारों और बेड़ियों को तोड़ सकते हैं, जैसा मैंने और मेरे भाइयों तथा अच्छे स्कूल से पढ़े लोगों ने सफलतापूर्वक किया है।

भेद-भाव हमेशा रहेगा। मैंने इसे जीवन का एक सच मान लिया है, लेकिन शिक्षित होने, दूरदृष्टि और ठोस इरादे रखने पर आप बेड़ियों को तोड़ सकते हैं।

समझौते और उदारता का यह बड़ा क़दम अल्पसंख्यकों की ओर बहुसंख्यकों का नज़रिया कैसे बदल सकता है?

यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने दुश्मन को कैसा मानते हैं। अगर आपको लगता है कि दुश्मन ज़िद्दी और हठी है, तो आप भी ज़िद्दी और हठी बन जायेंगे।

अगर उन्हें लगे कि मुसलमान शांति चाहते हैं और कठोर नहीं हैं, तो मुझे लगता है कि बहुसंख्यक भी आपका प्यार आपको लौटायेंगे।

यह एक अंतिम कोशिश है, लेकिन क्या इसके लिये देर नहीं हो चुकी है?

देर तो हो चुकी है, मैं कभी भी धार्मिक मामलों में नहीं पड़ा हूं, मैं पिछले ही सप्ताह अलीगढ़ में 'मुस्लिम्स फ़ोर पीस' नामक संस्था में शामिल हुआ हूं।

उन्होंने मुझे बताया कि उनका मक़सद क्या है और मुझे लगा कि मुझे मदद करनी चाहिये।

यह एक आख़िरी कोशिश है, लेकिन हमें हार नहीं माननी चाहिये।

अब हमारा नज़रिया लोगों के सामने रखना मीडिया की ज़िम्मेदारी है, ताकि बहुसंख्यक समाज भी उसे स्वीकार करे। यही हमारी उम्मीद है। 

अर्चना मसीह

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