प्रणाम आपको निराशा से ज़्यादा कुछ नहीं देती, करण संजय शाह लिखते हैं।
राजीव खंडेलवाल की नयी फिल्म को आप प्रणाम नहीं, अलविदा कहना चाहेंगे।
हम सभी इस अभिनेता को उनके हिट टेलीविज़न सीरियल कहीं तो होगा से जानते हैं, जिसके बाद उन्होंने बॉलीवुड में आमिर और शैतान से लोगों को काफ़ी प्रभावित किया।
लेकिन उसके बाद आने वाली फिल्मों में वे लोगों का दिल नहीं जीत पाये।
प्रणाम आपको और भी निराश कर देती है।
फिल्म की शुरुआत होती है लखनऊ की किसी झोपड़ी में अपने पिता के घर की ओर ड्राइव करते घायल अजय सिंह (राजीव खंडेलवाल) से।
वो घर में घुसता है, दरवाज़ा बंद करता है और फ़्लैशबैक में चला जाता है।
यहाँ से शुरू होती है एक ग़रीब लड़के की कहानी, जो अपने पिता के सपने को पूरा करने के लिये IAS ऑफ़िसर बनना चाहता है। IAS की एक और उम्मीदवार, ख़ूबसूरत मंजरी (समीक्षा सिंह) से उसकी प्रेम कहानी भी उसके इस सपने की राह में नहीं आती।
लेकिन फिर ऐसा क्या होता है कि वह राह से भटक कर गैंगस्टर बन जाता है?
राजीव और समीक्षा की जोड़ी नयी है और उनकी ऑनस्क्रीन केमिस्ट्री अच्छी है। राजीव के किरदार का भावनात्मक उतार-चढ़ाव और उसके पिता की तकलीफों का उस पर प्रभाव दिल को छू लेता है।
बाप-बेटे का रिश्ता सचमुच ख़ूबसूरती से दिखाया गया है।
लेकिन खंडेलवाल यहाँ पर अपना पूरा हुनर नहीं दिखा पाये हैं; हमने उन्हें इससे अच्छा प्रदर्शन करते देखा है।
इंस्पेक्टर की भूमिका में अतुल कुलकर्णी और कॉलेज छात्रों के नेता की भूमिका में अभिमन्यु सिंह के किरदार दिलचस्प हैं और उन्होंने लाजवाब प्रदर्शन किया है। दुःख की बात है, कि उन्हें स्क्रीन पर ज़्यादा समय नहीं दिया गया है।
प्रणाम ने अपनी कहानी दो घंटों में बयाँ की है, और दो घंटे भी बहुत ज़्यादा लगते हैं।
कहानी को खींचा गया है और कई जगहों पर आसानी से इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
फिल्म में कुछ ज़्यादा ही स्लो मोशन दृश्य हैं।
संजीव जैसवाल का डायरेक्शन और लेखन काफी कमज़ोर है। कुछ फ्रेम्स बिल्कुल बेजान हैं और कुछ सीन्स तो ज़बर्दस्ती ठूंसे गये हैं। बेमतलब के ड्रामा और भावनाओं की इसमें कोई कमी नहीं है।
इसमें न कोई दमदार डायलॉग है, न कोई प्रभावशाली दृश्य।
क्लाइमैक्स ज़्यादा तेज़ भगाया हुआ लगता है।
कुछ ऐक्शन सीक्वेंस ज़रूरत से ज़्यादा अस्वास्तविक हैं और CGI का काम अच्छा नहीं है।
कम्पोज़र विशाल मिश्रा ने अच्छा संगीत दिया है, लेकिन कुछ गानों के बिना फिल्म ज़्यादा अच्छी लगती।
खंडेलवाल ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि फिल्म की टैगलाइन -- 'गैंग्स्टर बना आइएएस ऑफ़िसर' -- इसकी पूरी कहानी बयाँ करती है।
लेकिन यह लाइन असल में ग़लत है, क्योंकि उनके किरदार ने बस परीक्षा पास की थी, उसकी बहाली नहीं हुई थी!
प्रणाम को कोई नहीं बचा सकता। इसे देखने का खतरा सोच-समझ कर मोल लें!
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