बाटला हाउस अपने दूसरे भाग में जाकर थोड़ी दिलचस्प हो जाती है, प्रसन्ना डी ज़ोरे का कहना है।
निखिल आडवाणी की बाटला हाउस -- दिल्ली के जामिया क्षेत्र में हुई विवादित मुठभेड़ पर आधारित -- में दिल्ली पुलिस की एक विशेष सेल द्वारा मारे गये दो संदिग्ध मुजाहिदीन आतंकवादियों जैसे संवेदनशील मुद्दे पर न तो ज़्यादा दृढ़ता दिखाई गयी है और न ही हिम्मत।
फिल्म के मुख्य किरदार, असिस्टंट कमिशनर ऑफ़ पुलिस (जॉन अब्राहम का किरदार) संजय कुमार की भूमिका संजीव कुमार यादव पर आधारित है, जिन्होंने सितंबर 2008 में दिल्ली के बाटला हाउस के हाउस नं एल-18 में हुई मुठभेड़ में पुलिस बल का नेतृत्व किया था।
हालांकि इस मुठभेड़ के झूठे या सच्चे होने पर विवाद आज 11 साल बाद भी अदालत में जारी है, लेकिन फिर भी आडवाणी की बाटला हाउस ने मुठभेड़ में शामिल पुलिस वालों की कहानी उनकी ज़ुबानी सुनाकर विवादों से बचने की कोशिश की है।
एसीपी कुमार अपने आदमियों को बाटला हाउस को घेर कर रखने का आदेश देते हैं, जब तक वह ख़ुद वहाँ पहुंच न जायें, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा जोशीले किशन कुमार वर्मा (रवि किशन द्वारा निभाया गया) आगे कदम बढ़ा कर अपनी जान से खेलने का फ़ैसला कर लेते हैं।
किशन वर्मा का किरदार स्पेशल सेल के इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा पर आधारित है, जो इस मुठभेड़ में मारे गये थे और उन्हें उनकी वीरता के लिये अशोक चक्र दिया गया था।
अपने सहकर्मी की मौत के अफ़सोस और बाटला हाउस की वास्तविकता को साबित करने के दबाव में, एसीपी कुमार टीवी ऐंकर नंदिता (मृणाल ठाकुर) से हुई अपनी शादी को सूली पर चढ़ा देते हैं। अक्सर मारे गये आतंकवादियों की परछाइयों को ख़ुद पर गोली चलाते देखने वाले कुमार के पीछे मीडिया, उनके वरिष्ठ अधिकारी और राजनैतिक अधिकारी हाथ धो कर पड़ जाते हैं।
बाटला हाउस का पहला हाफ़ आपकी सोच-समझ पर की गयी एक गोलीबारी है -- यह फिल्म 146 मिनट लंबी है -- क्योंकि एक मुठभेड़, एक टूटती शादी, सिस्टम से लड़ने के साथ-साथ मनश्चिकित्सक के पास जाकर अपनी मानसिक स्थिति से भी लड़ते एक ईमानदार पुलिसवाले की कहानी और हाँ, एक आइटम नंबर वाली रितेश शाह की इस कमज़ोर स्क्रिप्ट को ज़रूरत से ज़्यादा नाटकीय मोड़ देने की कोशिश की गयी है।
बाटला हाउस अपने दूसरे भाग में जाकर थोड़ी दिलचस्प हो जाती है, जिसमें मुठभेड़ से फ़रार एक आतंकवादी के लिये जाल बिछाने, उसका पीछा करने और उसे गिरफ़्तार करने के साथ-साथ अदालती नाटक शामिल है, हालांकि ये सब कुछ बहुत ही बचकाने अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है।
अभिनेता के रूप में, अब्राहम का लुक और अभिनय मद्रास कैफ़े में उनके सीबीआइ ऑफ़िसर के किरदार से रत्ती भर भी अलग नहीं है।
लेकिन मद्रास कैफ़े से अलग, यहाँ पर एक ईमानदार पुलिस ऑफ़िसर के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के नतीजों का सामना करते कुमार के रूप में अब्राहम पूरी फिल्म में अपने दुःख से आपकी सहानुभूति जीतने की कोशिश करते हैं।
मृणाल ठाकुर और रवि किशन को करने के लिये कुछ नहीं था।
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