सबको यही लगता है कि रॉ: रोमियो अकबर वॉल्टर की अधपकी कहानी को थोड़ा और पकाया जाना चाहिये था, उर्वी पारेख ने बताया।
देशभक्ति की फिल्में अक्सर अच्छा प्रदर्शन करती हैं, इसलिये फिल्म निर्माता कभी ऐसी फिल्में बनाने में पीछे नहीं रहते।
और जब आपके पास इस जॉनर में नाम कमा चुका जॉन अब्राहम जैसा ऐक्टर हो, तो फिर प्रोड्यूसर भला रिस्क क्यों न ले?
लेकिन निर्माताओं को यह भी समझना चाहिये कि सिर्फ तिरंगा फहराने और हमारे राष्ट्रगीत का इंस्ट्रूमेंटल वर्ज़न लोगों को सुनाने से ही फिल्म हिट नहीं हो जाती।
मूवी में दम होना चाहिये, जो देशभक्ति की थीम को और मज़बूत बनाये।
जॉन अब्राहम की नयी फिल्म रॉ: रोमियो अकबर वॉल्टर में वो बात नहीं है।
यह मूवी हमारी मातृभूमि के लिये हमारे प्यार को जगाने की पूरी कोशिश करती है, लेकिन हमसे जुड़ने में नाकामयाब रह जाती है।
कहीं कुछ अधूरा सा लगता है।
1970 के दशक पर आधारित रॉ एक बैंकर और थियेटर आर्टिस्ट रोमियो अली की कहानी है, जिसे देश की जासूसी एजेंसी, R&AW -- रीसर्च ऐंड ऐनलिसिस विंग द्वारा एक मिशन के लिये चुन लिया जाता है।
उसे श्रीकांत राय के किरदार में जैकी श्रॉफ़ के नेतृत्व में लड़ाई, शूटिंग और छुपी हुई चीज़ों को समझने की ट्रेनिंग दी जाती है।
कुछ ही दिनों में रोमियो को अकबर मलिक का नया नाम देकर दुश्मन देश की युद्ध की तैयारियों की जानकारी जुटाने के लिये पाक़िस्तान भेज दिया जाता है।
कुछ ख़ूफ़िया दस्तावेज़ अकबर के हाथ लग जाते हैं और वो उन्हें अपने अफसरों के पास भेज देता है।
लेकिन एक पाक़िस्तानी अफसर ख़ुदाबख़्श ख़ान (सिकंदर खेर) उसे पकड़ लेता है।
जॉन अब्राहम ने अपना किरदार अच्छा निभाया है, लेकिन कमज़ोर स्क्रिप्ट उनके अलग-अलग किरदारों को भी कमज़ोर बना देती है।
शुरुआत में पाक़िस्तानी अफसर के हाथों जॉन को टॉर्चर होता देखने के बाद एक बार भी आपको जॉन के किरदार के लिये दुःख नहीं महसूस होता है।
एक जासूस के रूप में जॉन अपने तनाव को दर्शकों तक नहीं पहुंचा पाये हैं, जो इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है।
जॉन एक और जासूस मॉनी रॉय से प्यार करते हैं, जिसका रोल बहुत ही छोटा है। उसे सिर्फ आँखें सेंकने के लिये रखा गया है।
जैकी श्रॉफ़ ने अच्छा काम किया है। लेकिन उनके रोल को भी सही रूप में नहीं ढाला गया है, और इसलिये आप उनकी कमियों का दोष उन्हें नहीं दे सकते।
सिकंदर खेर का किरदार लाजवाब है -- उन्होंने एक ख़ूंखार असफर का किरदार निभाया है, जिससे आपको नफ़रत हो जाये। उनका दमदार अभिनय देखकर हमें फिल्म की कमज़ोर स्क्रिप्ट पर और भी ज़्यादा दुःख होता है।
अच्छी कहानी होने के बावजूद डायरेक्टर रॉबी ग्रेवाल अपनी थ्रिलर से हमारी धड़कनें तेज़ नहीं कर पाते।
मूवी कई जगहों पर ‘रॉ’ यानि कि कच्ची लगती है, और सबको लगता है कि इस अधपकी कहानी को थोड़ा और पकाया जाना चाहिये था।
रॉबी ने रॉ को राज़ी जैसा बनाने की पूरी कोशिश की है, लेकिन उनकी कोशिश कामयाब नहीं रही।
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