'बायपास रोड बस गोल-गोल घूमता रहता है, और कहीं पहुंचता नहीं है,' सुकन्या वर्मा ने बताया।
सबसे कमज़ोर थ्रिलर्स की भी शुरुआत थोड़ी उत्सुकता के साथ होती है।
लेकिन जैसा कि सस्पेंस के जनक ऐल्फ्रेड हिचकॉक ने कहा है, 'मज़ा धमाके में नहीं, धमाके की संभावना में है।'
दोषी को ढूंढने की अपनी कोशिश में बायपास रोड बस गोल-गोल घूमता रहता है और कहीं पहुंचता नहीं है।
और जब तक रहस्य का खुलासा होता है, तब तक मैं इतनी थक चुकी थी, कि मुझे स्ट्रेचर पर घर जाने की ज़रूरत महसूस हो रही थी।
बायपास रोड की हादसे, धमाके और शोर के साथ हुई शुरुआत के बाद मनहूस घटनाओं का सिलसिला जारी रहता है, जब एक फैशन डिज़ाइनर की कार दुर्घटना और एक सुपरमॉडल की आत्महत्या एक साथ होती है, और पुलिस की छान-बीन शुरू होती है। यहीं से जासूसी कहानी का सिलसिला शुरू होता है।
हालांकि डिज़ाइनर विक्रम कपूर (नील नितिन मुकेश) बच जाते हैं और व्हीलचेयर पर आ जाते हैं, लेकिन मॉडल (शमा सिकंदर, ज़्यादा बोलने वाली) की रहस्यमय मौत दाल में कुछ काला होने की ओर इशारा करती है।
उनका बेमतलब प्रेम-प्रसंग फिलहाल अपनी कंपनी इंटर्न (अदा शर्मा, निरर्थक) के साथ बुझे-बुझे रोमांस में उलझे इस आदमी के लिये मुश्किलें खड़ी कर सकता है। वो इसे अस्पताल में हैरी पॉटर पढ़ कर सुनाती है, तो ये उसके फैशन सेंस का मज़ाक उड़ाता है।
एक ठुकराया हुआ मंगेतर (ताहिर शब्बीर, असंगत), पिता के साथ ख़राब रिश्ते (रजित कपूर, ठीक-ठाक), उनकी चालाक और ख़ूबसूरत दूसरी पत्नी (ग़ुल पनाग, अस्वाभाविक अभिनय) और नाजायज़ प्रेमी (सुधांशु पांडे, उबाऊ) ने प्लॉट का आकार बढ़ाया है, जबकि एक पुरानी नौकरानी, एक बेख़बर सौतेली बहन और एक पुलिस वाले (मनीष चौधरी) -- जिन्हें देखकर लगता है कि उन्होंने मर्डर मिस्ट्रीज़ पढ़ी तो बहुत हैं, लेकिन सुलझाई एक भी नहीं है -- ने समझने में आसान झूठ के जाल, कोई हैरानी पैदा न करने वाले छल-प्रपंच और बनावटी इरादों से भरी इसकी कहानी में अपना योगदान दिया है।
बायपास रोड की कहानी जब बेजान भुलावे और बेमतलब ख़ौफ़ में उलझी हुई नहीं होती, तब यह एक बनावटी सीधी लकीर में चलती जाती है।
लेकिन कुछ ही देर बाद ख़ुद को समझाने के उतावलेपन के कारण रहस्य बनाने की इसकी कोशिश नाकाम रह जाती है।
इसकी एडिटिंग में बार-बार फ़्लैशबैक और मैच कट्स के बहुत ज़्यादा इस्तेमाल से बायपास रोड की रही-सही तकनीकी ख़ूबसूरती भी कमज़ोर पड़ जाती है।
बायपास रोड की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि इसमें आरोपी तो जमा होते जाते हैं, लेकिन जुर्म का असली मक़सद सामने नहीं आता।
बिना रोमांच या दाँवों की इस उधड़ी-बुनी रहस्यमय कहानी के साथ, डायरेक्टर के रूप में नमन नितिन मुकेश की पहली फिल्म में वो बात और वो दम नहीं है जो अपराध के घिसे-पिटे दृश्यों को दिलचस्प सिनेमा का रूप दे सके।
इसमें कई हास्यास्पद दृश्य भरे हैं, जैसे रहन-सहन और अंदाज़ से रईस लगने वाले, पैसों के मामले में बराबरी का दर्जा रखने वाले आदमी पर 2,000 रुपये के नोटों की गड्डी का फेंका जाना, जैसे वह दो कौड़ी का ब्लैकमेलर हो। या फिर मिड्ल स्कूल के बच्चों की लड़ाई से लिये गये डायलॉग्स जैसे, 'तुम मुझे ख़त्म नहीं कर सकते, क्योंकि तुम ख़ुद ख़त्म हो चुके हो।'
कमज़ोर लेखन की बात करें, तो इसमें #MeToo का भी ज़िक्र है, जिसकी कोई ज़रूरत नहीं थी।
जिस तरह से बॉलीवुड धमकाने के लिये इसका इस्तेमाल करता है, उससे पता चलता है कि इंडस्ट्री में इस अभियान के प्रति कितनी ग़ैर-ज़िम्मेदार सोच व्याप्त है।
संवेदनशीलता की जगह, इसे दुरुपयोग और मज़ाक का साधन बनाया जा रहा है।
नमन ने फिल्म-मेकिंग के ज़्यादा बनावटी, सजीले अंदाज़ की ओर झुकाव दिखाया है।
विक्रम का आलीशान घर या फ़साहत ख़ान के कैमरे में लिये गये फ्रेम्स बायपास रोड को अशांति की झलक देने में सफल रहे हैं। और कहानी की रचनात्मकता ख़त्म हो जाने पर यही अच्छी बात बायपास रोड को नीरस भी बनाती है।
बायपास रोड में नील नितिन मुकेश ने अभिनेता, लेखक और को-प्रोड्यूसर की भूमिका निभाई है, मानो वह ख़ुद को कबूतरों की पंचलाइन (हाउसफुल 4 रीव्यू देखें) से ज़्यादा साबित करने की कोशिश कर रहे हों।
फैशन हाउस की ख़ूबसूरती झलकाने वाली अपनी शानदार वॉर्डरोब फिटिंग में यह अभिनेता बेहद जँच रहे हैं और उन्होंने अपने ख़ामोश किरदार को संजीदग़ी के साथ निभाया है।
लेकिन उनका लेखन कहीं भी इस स्तर को नहीं छू पाता।
कितने भी तूफ़ान और बिजली, बिल्लियाँ और धमकियाँ, नक़ाबपोश हमलावरों और व्हीलचेयर पर बैठे उनके शिकारों के बीच छिड़ी जंग को दिखाने के लिये खाली छोड़े हुए मकान (जो हाल ही में गेम ओवर ने काफ़ी ख़ूबसूरती से किया था) बायपास रोड की ऊबड़-खाबड़ राह को दुरुस्त नहीं कर सकते।
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