भारत हमारे आज के दौर की ही एक झलक है: जहाँ हम चाहते हैं कि हमारे हीरोज़ में दुनिया की हर ख़ूबी हो, और कोई भी दोष न हो - यही बीमारी आज हमारे पूरे देश में फैली हुई है, श्रीहरि नायर ने कहा।
अली अब्बास ज़फ़र की भारत में, एक किरदार (जैकी श्रॉफ़ द्वारा निभाया गया) भारत के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घड़ी - बँटवारे की लड़ाई - में अपने भीतर के देव आनंद को बाहर लाता है।
लेकिन इस फिल्म में सिर्फ जैकी श्रॉफ़ की ग़लती दिखाना सही नहीं होगा, जिसमें हर जगह गलत अभिनय, फूहड़ मज़ाक और घटिया किरदारों को भरा गया है।
आप तभी समझ जाते हैं कि फिल्म की कहानी कितनी भूली-भटकी है, जब फिल्म के हीरो के रूप में सलमान ख़ान जैसा व्यक्ति एक भोले-भाले, शिष्ट, बहादुर और हर तरह से अच्छे इंसान का किरदार निभा रहा हो।
भारत की पूरी कहानी बेमतलब और बेमेल घटनाओं से भरी है, जैसे: फिल्म की शुरुआत में ख़ान, कटरीना कैफ़ और शशांक अरोड़ा फ़्लिपकार्ट के उस विज्ञापन के मॉडल्स जैसे नज़र आते हैं, जिसमें 'बच्चे बड़े होने का नाटक करते हैं'।
उनके घटिया अभिनय का स्तर उनके बुढ़ापे में साफ़ दिखाई देता है: ख़ान बात करते समय खाँसते दिखाई देते हैं; कैफ़ उपमाओं के बीच आहें भरती हैं; अरोड़ा उदास सा चेहरा लिये अपनी नकली घनी मूंछें संभालते दिखाई देते हैं।
इसके बाद हम फ़्लैशबैक में चले जाते हैं, जहाँ हमें ख़ान के किरदार के बारे में बताया गया है: उसका नाम है भारत, बँटवारे में जीवित बचा एक व्यक्ति, जो विदेशियों से तो टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में बात करता है लेकिन हमारी मांग पर हमारे लिये अंग्रेज़ी में राष्ट्रगीत भी गा कर सुनाता है।
अली अब्बास ज़फ़र ने अपने हीरो को सिर-आँखों पर बैठा रखा है।
विज़ुअल इफ़ेक्ट्स के साथ भारत के गूढ़ क्लाइमैक्स को दिखाने वाले दृश्य भी उतने ही खोखले हैं।
भारत की आज़ादी के बाद के इतिहास के ख़ास पड़ावों को सलमान के वॉइस-ओवर द्वारा बताया गया है।
उसकी मौजूदग़ी में सारे मर्द आपनी सूझ-बूझ भूल जाते हैं और सारी लड़कियाँ उस पर फ़िदा हो जाती हैं।
इस आदमी की ताक़त इतनी ज़्यादा है कि जब भारत खुले मैदान में खड़ा हो जाता है, तो सूरज को भी उसके कंधों से ऊपर आने में घबराहट होती है।
इस मुख्य किरदार का खोखलापन मुझे खाये जा रहा था और तभी मुझे एहसास हुआ: इस मूवी की क्या शिकायत करें, जिसने बस आज के भारतीय समाज में फैली रूढ़िवाद की धुन को पकड़ने की कोशिश की है।
भारत हमारे आज के दौर की ही एक झलक है: जहाँ हम चाहते हैं कि हमारे हीरोज़ में दुनिया की हर ख़ूबी हो, और कोई भी दोष न हो - यही बीमारी आज हमारे पूरे देश में फैली हुई है।
आज कल लोगों की सोच बहुत ही नाज़ुक है: लोगों का मानना है कि हीरो होने के लिये आपको समझदार होने की ज़रूरत नहीं है - बस आपका 'अच्छा' होना काफ़ी है।
हो सकता है कि आपको ये दिखावटी अंदाज़ पसंद न आये, लेकिन अली अब्बास ज़फ़र की यह फिल्म पूरी तरह इसी सोच के साथ बनाई गयी है।
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