साहो की कहानी में किसी भी चीज़ का न कोई सिर है और न कोई पैर, सुकन्या वर्मा ने बताया।
हाल की एक खोज में पता चला है कि मनुष्य का ध्यान देने का स्तर अब गोल्डफिश से कम हो गया है।
लेकिन सुजीत की साहो अपनी इस अंजान रहस्य का पीछा करने वाली बेतुकी कहानी में इस स्तर को और भी नीचे लाकर इस खोज को चुनौती दे रही है।
पुलिस के वेश में ठग और ठग के वेश में पुलिसवालों के बीच बेतरतीब ऐक्शन और बिना कारण के हंगामे को लगभग तीन घंटे तक झेलने के बाद, मेरा दिलो-दिमाग सुन्न और निराश हो चुका है।
मुझे अभी तक पता नहीं है कि मैंने देखा क्या है।
साहो खोखला आकर्षण और बेमतलब का रहस्य बनाने की कोशिश में एक के बाद एक मूर्खतापूर्ण दृश्य इस तरह से दिखाती है, कि मानो आपके सिर को लगातार दर्जनों स्क्रीन्स पर पटका जा रहा हो, जिनमें से किसी में बैटमैन चल रही है, किसी में एवेंजर्स और किसी में मैड मैक्स।
काग़ज़ी तौर पर देखा जाये तो तेलुगू, तमिल, हिंदी और मलयालम में रिलीज़ होने वाली साहो में मसाला तो बहुत है।
एक ऐसा हीरो, जिसकी पिछली रिलीज़ ने उसे दर्शकों का मसीहा बना दिया है, और कई ख़तरनाक विलेन्स के साथ-साथ हॉलीवुड के टेक्नीशियन्स द्वारा कोरियोग्राफ किया गया धमाकेदार ऐक्शन।
लेकिन साहो की कहानी में किसी भी चीज़ का न कोई सिर है और न कोई पैर।
निरर्थक होना भले ही हर मसाला फिल्म की आम बात है, लेकिन सोच की कमी कभी दर्शकों को प्रभावित नहीं कर सकती।
मनोरंजन मिलने पर दर्शक कमियों को अनदेखा कर देते हैं, लेकिन ऊबने पर दर्शक सिर्फ कमियों को ही देखते हैं। और 174 मिनट, 30 सेकंड की साहो एक तरह की यातना है।
इस तरह की डावांडोल फिल्ममेकिंग पर ट्रेडिशनल रीव्यू लिखना सही नहीं होगा, जिसके दिखाई न देने वाले हुनर में पूंजीपति आँख बंद करके अपने पैसे लगाते हैं।
इसकी जगह, मैं फिल्म की कुछ हैरान करने वाली बातें बताना चाहूंगी।
1. साहो का ज़्यादातर हिस्सा वाजी सिटी नामक एक काल्पनिक शहर पर आधारित है, जो गॉथम की तरह ख़तरनाक अपराधियों और कमज़ोर पुलिसवालों से भरा है।
प्रभास एक काली कस्टमाइज़्ड गाड़ी में चलते हैं और एक ऊंची इमारत से आसमान की ओर एक महानायक की तरह देखते हैं।
लेकिन फिल्म का स्क्रीनप्ले इतनी तेज़ी से यहाँ-वहाँ भटकता रहता है कि पता ही नहीं चलता कौन किसको धोखा दे रहा है और कब ऐक्शन वाजी से मुंबई और ऑस्ट्रिया से अबू धाबी पहुंच गया।
2. अंजान लोगों को हथियार और नोट्स भेज कर पैसों के दम पर उन्हें टीवी सीरियल छोड़ डकैतियों को अंजाम देने के काम में लगाया जाता है। कोई भी न इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है न कोई गड़बड़ करता है। लगता है साहो को अब्बास-मस्तान की अजनबी में कही गयी बात: ‘एवरीथिंग इस प्लैन्ड’ पर कुछ ज़्यादा ही विश्वास है।
3. प्रभास साँपों और तेंदुओं से भरे एक चॉलनुमा कॉम्प्लेक्स में कदम रखते हैं, जहाँ पारंपरिक देसी कपड़ों में लोग खिचड़ी पका रहे हैं, इस्त्री कर रहे हैं, कसाई की दुकान और कुश्ती के अखाड़े चला रहे हैं। इनके बीच है लॉर्ड ऑफ़ द रिंग्स का एक फैनबॉय, जो गिमली जैसी दाढ़ी के साथ उल्टा लटका हुआ है।
4. ऐसे दौर में, जब कार्यस्थल पर महिला सुरक्षा चिंता का एक बड़ा विषय है, श्रद्धा कपूर के किरदार पर उनके सहकर्मी, प्रभास लगातार इश्क़ का जाल फेंकते रहते हैं। और प्रतिक्रिया के तौर पर श्रद्धा अपनी कार बेच कर उनके लिये एक अंगूठी ख़रीदती है। ये तो सरासर लूट है। भई प्लेटिनम है, कोई विब्रेनियम नहीं।
उन्होंने पुलिसवाली का संजीदा किरदार निभाया है, जिसका काम काफ़ी फिसड्डी लगता है।
इससे भी बुरी बात यह है कि साहो की कहानी को समझ में नहीं आता कि उसे इसके लिये श्रद्धा का मज़ाक उड़ाना है या हीरो का ध्यान भटकाने के काम में धकेलना है।
भले ही दोनों दो गज़ जमीन के नीचे किसी बेसमेंट में क्यों न हों, जब भी प्रभास श्रद्धा को देखते हैं, श्रद्धा के चेहरे पर एक स्पेशल हवा का झोंका लहराने लगता है।
काम पर सिल्क शर्ट और बेहद चुस्त जीन्स में तथा अंडरकवर मिशन्स पर सेक्सी कॉकटेल ड्रेस में जाने वाली श्रद्धा पंजाबी क्लब साँग पर हीरो के साथ नाचने में इतनी मशग़ूल हो जाती हैं कि बाद में पता चलता है कि चोर भाग चुका है, श्रद्धा पूरी तरह इस फिल्म की पुरुष-प्रधानता का शिकार लगती हैं।
और श्रद्धा के चेहरे के खोखले हाव-भाव उनके काम को और कमज़ोर कर देते हैं।
5. प्रभास ने अपनी लाइनें ख़ुद बोली हैं। न सिर्फ उनकी हिंदी ख़राब है, बल्कि साथ ही इससे आपको नींद भी आने लगती है। उनकी धमकियाँ लोरी सी लगती हैं। उन्हें किसी आलसी किरदार के लिये डब करना चाहिये।
6. और डायलॉग्स की बात करें, तो तैयार हो जाइये कुछ घटिया डायलॉगबाज़ी के लिये:
‘अकेले ग़ायब हो जाये तो किडनैप लगता है। पूरी फ़ैमिली ग़ायब हो जाये तो वेकेशन लगता है।’
प्रभास के साथ ऑस्ट्रियन आल्प्स के सामने नाचते समय श्रद्धा के फोन पर एक मेसेज आता है, ‘क्या तुम अभी भी पुलिस में हो?’
एक आदमी ‘ईगल डाउन’ वाली भाषा का इस्तेमाल करन शुरू करता है, लेकिन बीच में मन बदल कर कह देता है ‘अशोक इज़ ऑल्सो डाउन.’
साहो ने आलसी लेखन की हदें पार कर दी हैं।
7. डायरेक्टर सुजीत एक बेहद धमाकेदार हॉलीवुड ऐक्शन का वातावरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन यह रोमांचक कम, हास्यास्पद ज़्यादा है।
उनका हीरो एक ख़ूबसूरत चेहरे वाला पोस्टर बॉय है, ख़तरे में पड़ना और बाहर निकलना जिसके बायें हाथ का खेल है। बेढंगा VFX उसकी झूठी महानता को और भी कमज़ोर कर देता है। और हाँ, उसके अलावा हर कोई निरा बेवकूफ़ है, जो उसे आसानी से निकल जाने देता है।
8. विलेन्स -- चपल-चतुर जैकी श्रॉफ़, हमेशा ग़ुस्से में दिखने वाले महेश मांजरेकर, गुर्राते हुए चंकी पांडे, मुंह बनाते अरुण विजय और कनफ़्यूज़्ड नील नितिन मुकेश साथ मिलकर कोलाबा कॉज़वे पर बिकने वाली सड़कछाप ज्वेलरी जैसे लगते हैं।
इसमें मंदिरा बेदी भी हाथ से बुनी साड़ियों और चमकीले अवतार में नज़र आती हैं।
लेकिन पेडिक्योर कराने और बुलेटप्रूफ़ कारों में गोलियों से बचने की भाग-दौड़ में उनके किरदार कहीं भी अंतर्राष्ट्रीय अपराध जगत के सबसे ख़ूंखार नामों जैसे नहीं लगते।
9. किसी अज्ञात कारण से साहो ने कहानी में कहीं भी समझदारी को शामिल न करने की पूरी कोशिश की है।
चटपटे ह्यूमर के लिये चीखती इस कहानी में जोक्स नदारद हैं। जब भी कोई किरदार हँसने की कोशिश करता है, उसे या तो गोली मार दी जाती है या फाँसी लगा दी जाती है।
10. साहो को बस एक ही काम करना है, बिना मतलब की तोड़-फोड़। एक मूर्खतापूर्ण क्लाइमैक्स में मैड मैक्स 3 जैसे बदमाशों की टोली आकर रही-सही कसर पूरी कर देती है।
जैकलीन फर्नैंडिस के एक गाने के अंत में अचानक एक बैटल टैंक कहीं से आकर दो मासूम कारों को कुचल देता है, जिसका कारण किसी को नहीं पता।
एक दृश्य में प्रभास और श्रद्धा कपूर दो मूर्तियों के सामने खड़े हैं, जिनके दिमाग़ में आग लगी हुई है।
बस, ये दोनों मूर्तियाँ साहो के दर्शकों की, यानि कि आपकी और मेरी हैं।
'Women might hate me after watching Saaho'
'I am so nervous, I want to lock myself in a room!'
It's a bird. It's a plane. No, it's a MAN ON A PLANE!
When Bollywood made EVIL So Much FUN!
Like Mandira's look in Saaho?