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बदला रीव्यू: ख़ौफ़नाक साज़िशों से भरा एक स्लो-मूविंग सस्पेंस

By सुकन्या वर्मा
March 09, 2019

बदला एक धीमी, सीधी-सादी, पुराने ज़माने की जासूसी कहानी जैसी लगती है, जिसकी कहानी को एक डरावने खेल की तरह दिखाया गया है और किरदारों को शक़ के लिबास में छुपाया गया है, ऐसा सुकन्या वर्मा ने महसूस किया।

बदला ! अब इससे ज़्यादा भटकाने वाला नाम और क्या होगा।

ऐनाग्राम के रूप में देखें या फिर दोहरे अर्थ वाले व्यंग्य के रूप में,  यह नाम सुजॉय घोष की कमज़ोर थ्रिलर के लिये बिल्कुल सही है।

स्पैनिश मिस्ट्री कॉन्ट्राटिएम्पो (2016) की करीब-करीब भरोसेमंद रीमेक, बदला  धीमी, सीधी-सादी, घिसी-पिटी जासूसी कहानी जैसी लगती है, जिसकी कहानी को एक डरावने खेल की तरह दिखाया गया है और किरदारों को शक़ के लिबास में छुपाया गया है।

इसमें मुख्य किरदार के लिंग को बदल कर एक बेहद शक्तिशाली महिला (तापसी पन्नू) को कुछ सबूतों के कारण एक ख़ून के इल्ज़ाम में फँसती हुई दिखाया गया है।

उसे बेकसूर साबित करने की काबिलियत सिर्फ एक ही आदमी में है (अमिताभ बच्चन), जो अपने 40 साल के करियर में एक भी केस हारा नहीं है।

यह सब कुछ बदला  जैसे जॉनर के लिये काफी सादा लगता है, इसलिये घोष ने बारी-बारी से एक-एक फ़्लैशबैक दिखा कर धुंध को बुना है।

जैसे-जैसे दोनों उसके अस्थायी अपार्टमेंट में वारदात की जगह पर गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करते हैं वैसे-वैसे बेवफ़ाई, बेख़बर पति-पत्नी, एक रोड ऐक्सिडेंट, मदद करने वाले एक बुज़ुर्ग जोड़े और एक अंजान ब्लैकमेलर के रूप में पहेली के नये पहलू सामने आते हैं।

स्कॉटलैंड की बर्फीली वादियों और ख़ूबसूरती के बीच बदला  में कई उलट-फेर चलते रहते हैं, और हर बयान के बीच अंतर साफ़ दिखाई देता है।

कभी न हारे इस वकील का मानना है कि सच के कई रूप होते हैं, उसकी गहराई में उतरने और महाभारत से उदाहरण लेने की आदत उसके मददगार व्यक्तित्व की झलक देती है।

इस उधेड़-बुन को अलग रख कर देखें, तो कहानी के नाटकीय मोड़ फॉरेन्सिक्स और लॉजिक को कहीं पीछे छोड़ देते हैं और चौंकाने वाले सरप्राइज़ देने के चक्कर में कहानी तर्क को भूल जाती है। बदला  की तारीफ़ में इससे ज़्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता।

फिर भी, अच्छी बात यह है कि कुछ नया नहीं दिखा पाने के बावजूद घोष ने एक-दूसरे की इंसाफ़ की समझ को परखते दो धुंधले व्यक्तित्वों के बीच की केमिस्ट्री को बख़ूबी बाहर लाने पर पूरा ध्यान दिया है।

अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू की बातचीत में एक जादू है, और जब भी बदला  अपना ध्यान कहानी के दूसरे पहलुओं पर डालता है, तो हम फिर से इसी जादुई बातचीत पर लौटना चाहते हैं।

अमृता सिंह और मानव कौल प्रभावशाली व्यक्तित्व हैं, लेकिन बदला ने उनके किरदारों को ज़्यादा उभरने नहीं दिया है और दोनों धुंध में छुपे रह जाते हैं। और मलयालम ऐक्टर टोनी ल्यूक का नीरस अंदाज़ बदला  का मज़ा पूरी तरह किरकिरा कर देता, अगर इसमें बच्चन-पन्नू का जादुई अभिनय नहीं होता।

घोष ने बदला  की कहानी के अनुसार दो बिल्कुल सही लीड्स चुने हैं।

पन्नू की थकी और बोझल आँखें और उनका हाव-भाव उनके किरदार की मुश्किल को साफ़ बयाँ करता है, जबकि उनका अक्खड़पन किरदार के घमंड की झलक देता है।

मुश्किल में फँसी होने के बावजूद वो बहुत ही ज़्यादा स्मार्ट है।

अपने शानदार अभिनय के साथ, पन्नू बख़ूबी इस किरदार को निभाती हैं।

उसके परखे हुए, उसके राज़ जानने वाले दोस्त के रूप में, बच्चन का किरदार बेहद चालाक और शक्की किस्म का है।

उनके शक्की लहज़े में 9 को 6 बना देने वाले लंबे अनुभव की झलक साफ़ दिखाई देती है।

उनके किरदार की 'एक कदम आगे' चलने की काबिलियत बदला  को मज़ेदार बनाये रखती है, भले ही आपने इसके रहस्य को बहुत ही पहले सुलझा लिया हो।

रहस्यों के गुरू, ऐल्फ्रेड हिचकॉक ने कहा है, 'बदला मीठा होता है, लेकिन वज़न नहीं बढ़ाता।'

कहा जा सकता है कि बदला की यह दो घंटों की कहानी छोटी और मज़ेदार है।

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सुकन्या वर्मा
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